एन सी ई आर
टी का हिंदू विरोधी एजेंडा
हमारे देश में
इतिहास को तोड़ मोड़ कर पढ़ाया जा रहा है। यह खेल एक एजेंडा के तहत हो रहा है
जो मुक्कमल हिंदू विरोधी एजेंडा है। एक आम बच्चे के दिमाग़ में एक ग़लत
आइडियोलौजी फीड की जा रही है। हमे एक राष्ट्र के रूप में यह देखना चाहिए कि जिस
तरह कि जो शिक्षा हमारे यहां दी जा रही है, क्या वह हमारे
डेमोक्रैटिक वैल्यू के साथ, हमारे संविधान के एथोस साथ, हमारे संविधान के ढांचा के साथ मेल खाता है। तो इसका जवाब है नहीं।
सन् १९४७ में हमे आजादी मिली। तब से हमारे कोर्स की
किताबें इस तरह का एक पोर्ट्रेयल दिखाती हैं कि जो भारत के बाहर की आइडियोलौजी है
वह अच्छी हैं। हमारे देश की आइडियोलौजी को ऐसे दिखाया जा रहा है, जैसे वो या तो रिग्रेसिव रही है, या वो मिजोगाइनस
रही है। हमारे यहां शोषण ज्यादा होता था। महिलाओं का शोषण किया जाता था। वह समाज
को बांटने का काम करती थी। वास्विक पिक्चर इसके बरक्स है।
सच बात यह है कि भारत के बाहर की जो आइडियोलौजी हैं, जिसको आप अब्राहमिक रिलिजन कहते हैं, वह समाज को
बांटते हैं। यदि हम बाइबल का उदाहरण लें, तो एक क्रिश्चियन
है और दूसरा नन क्रिश्चियन है। अगर आप इस्लाम का उदाहरण लें, तो एक मोमिन है दूसरा काफिर है। हमारे देश के अर्थात किसी भी भारतीय
धर्मों में, मतों और संप्रदायों में,
ऐसा विभाजन नहीं दिखता है। यह
जो नेगेटिज्म है, वह हमारे देश में सेकुलरिज्म के नाम पर चलाया
जा रहा है, या इसके पीछे कोई पोलिटिकल एजेंडा है, यह मैं स्वयं पाठकों के उपर छोड़ने जा रहा हूँ।
मगर यह तो साफ है कि हिंदू इसका विक्टिम है। मगर इस देश में जो मुसलमान हैं, उनके भी तो पूर्वज हिंदू ही थे। बेशक कभी वे
तलवार के जोर पर और कभी जजिया जैसे टैक्स से बचने के लिए कनभर्ट हो गये। मगर उसको
भी जब तक हम यहां की जो डेमोक्रेटिक वैल्यू है, जो
यहां की आइडियोलौजी है, वो नहीं बताएंगे, जबतक
उसे समझ में नहीं आएगा कि उसे किधर ले जाया जा रहा है, तबतक सामाजिक समरसता नहीं बन सकती। आए दिन जो
सामाजिक संकट हमें दिखता है, उसे दूर करने का
तरीका एडुकेशन है। लेकिन दुर्भाग्यवश उसी एडुकेशन सिस्टम को जिसपर हम विश्वास
करते हैं कि वह हमें सच पढाएगा, उसी को ग़लत तरीके
से इस्तेमाल करके उल्टा काम किया जा रहा है। यह आज से नहीं है, जबसे हमें आजादी मिली है, तबसे चल रहा है।
एक जो फर्क देखने को मिल रहा है, वह यह है कि जो २००६ के पहले की किताबें हैं वह एंटी हिंदू और एंटी
इंडिया है, और प्रोकौम्युनिज्म,
प्रोलेफ्ट है। लेकिन जो २००६ के बाद की
किताबें हैं, उसमें एक नया ट्रेंड है,
यह क्रिश्चिऐनिटी और मिशनरी के फेवर में ज्यादा झुकी हुयी हैं। जो नैरेटिव
बनाया गया है, यदि उसे आप विस्तार में क्लासिफाई करें तो
आप पाएंगे कि भारत को तोड़ने वाली शक्ति उसके पीछे काम कर रही है।
यह पहले तो उत्तर भारत और दक्षिण भारत में डिवाइड
क्रिएट करता है। यह दिखाता है कि नौर्थ और साउथ इंडिया में कलचरल डिफरेंस है। एन सी ई आर टी के ७वीं की किताब में लिखा है कि दक्षिण
भारत कभी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं। यह ऐतिहासिक दृष्टि से ग़लत है।
हम अगर यहां के मौलिक श्रोतों को छोड़ भी दे तो
बाहर से जो हमरे यहां आए, जैसे मेगास्थनीज
आए, फाइयान आए, ह्यूनसांग आए, उसके बाद अल बरूनी
आए, अमीर खुसरो आए। ये
सारे जो भारत की बाउंडरीज बताते हैं वह एक ही है। ये बाउंडरीज उत्तर में हिमालय
से शुरू होती है और पूरे हिंद महासागर तक जाती है।
मिशनरी नेटवर्क ने यह नौर्थ साउथ डिवाईड क्रिएट किआ है। ये आज की जो
किताबें हैं वो उसी को आगे बढा रही हैं।
दूसरा जो डिविजन ये किताबें करती हैं, वो है पुरूष वरसेज महिला का। ऐसा दिखाने की कोशिश
की गयी है कि यहां की जो प्राचीन परम्पराएं थीं वो महिला विरोधी थीं।
इससे इनका एक ओबजेक्टिव पूरा होगा कि ५० प्रतिशत जनसंख्यां एंटागोनिस्टिक हो सकती
है। और एक नयी फौल्टलाइन क्रिएट हो सकता है।
तीसरा जो डिविजन वे क्रिएट करते हैं
वो लिंग्विसटिक बेस के उपर है। उन्होंने सबसे बड़ा टारगेट संस्कृत को बनाया।
अर्जुन सिंह भारत के एडुकेशन मिनिस्टर बने थे, तो उन्हेांने
संस्कृत को साइड लाइन कर दिया। मगर कुछ सोशल एक्टिविस्ट ने सुपरीम कोर्ट में
पेटीशन लगाया। सुपरीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि संस्कृत
को कैरीकुलम में शामिल करना पड़ेगा। और संस्कृत को कैरीकुलम में शामिल करना पड़ा। मगर वे
लोग वहीं नहीं रूके। बाद में सुपरीम कोर्ट में अरूणा राय जो बाद में सोनिया गांधी
के नेशनल एडवाइजरी कमीटी की सदस्या बनी, के द्वारा एक
पेटीशन फाइल किया गया कि संस्कृत को पढाना सेकुलरिज्म
के विरुद्ध है। मगर सुपरीम कोर्ट ने उसे यह कहकर डिसमिस कर दिया कि संस्कृत
भारत की संस्कृति की जान है। उसे जाने बिना बच्चे इस देश की संस्कृति को नहीं
जान सकते।
चंडीगढ़ में श्री नीरज अत्री नामक एक
एक्टिविस्ट हैं । उन्होंने एन सी आर टी की ७ से १२ क्लास की जो इतिहास की
किताबों का अध्ययन कर कुछ विवादास्पद तथ्यों का संग्रह किया कि किस तरह इतिहास
की किताबों में विकृतियां पैदा की गयी हैं। उसमें
लगभग ११० ऐसे विंदु थे जिनके बारे में उन्होंने डिपार्टमेंट औफ सोशल साइंसेस
को आर टी आई एप्लीकेशन्स लगाए। कि आप
किस आधार पर ऐसा पढा रहे हैं। सबके एक ही जवाब आए कि इसका हमारे पास कोई रेकर्ड
मौजूद नहीं है।
किस तरह बच्चों के दिमाग़ में ग़लत चीजें फीड की
जा रही हैं, उसके कुछ उदाहरण नीचे हैं। एन सी ई आर टी
की कक्षा ६ की पुस्तक में लिखा है कि ‘ ऋगवेद में मबेसियों बच्चों और घोड़ों की
प्राप्ति के लिए अनेक प्रार्थनाएं हैं। घोड़ों को लड़ाई में रथ खीचने के काम में
लाया जाता था। इन लड़ाइयों में मबेसी जीत कर लाए जाते थे। लड़ाइयां जमीन के लिए भी
लड़ी जाती थी, जहां अच्छे
चारा गाह हों, या जहां जौ जैसी जल्दी तैयार हो जाने वाली
फसलों को उपजाया जा सकता था। कुछ लड़ाइयां पानी के श्रोतों और लोगों को बंदी बनाने
के लिए भी लड़ी जाती थी।’ यहां यह इमेज बनती है कि हम बहुत ही पिछड़े हुए लोग थे। हम पानी के लिए, जमीन के लिए लड़ते थे। हम लोगों को बंदी बनाते थे। श्री नीरज अत्री ने मांग की थी कि ऋगवेद के वे श्लोक
या ऋचाएं हैं, उनकी एक लिस्ट दो, जो
इस तथ्य की बैकिंग करती है। और उन श्लोकों का ट्रांस्लेशन किसने किया था, वो उन्हें दिया जाय। और किसने यह सुनिश्चित किया था कि इसे कोर्स में
पढाया जाय। एन सी ई आर टी का जवाब यह आया कि
हमारे पास इस तरह का कोई रेकार्ड मौजूद नहीं है।
इसी तरह इृसमें जो दूसरा फैक्ट था, जिसे इनवेस्टिगेट करने की जरूरत थी, उसी में आगे
लिखा है ‘युद्ध में जीते हुए धन
का कुछ भाग सरदार रख लेते थे। तथा कुछ हिस्सा पुरोहितों को दिया जाता था। शेष आम
लोगों में बाट दिया जाता था।‘ इससे तो वैदिक काल के लोगों की यह छवि यह बनती
थी कि वे डकैती करते थे। जब वे यज्ञ में आहुति का जिक्र करते हैं तो वे कहते हैं
कि घी, अनाज और कभी कभी जानवरों की भी आहुति दी जाती थी।
आर टी आई में उन्होंन यह भी जानकारी मांगी थी कि ऋगवेद के वे श्लोक या ऋचाओं की एक लिस्ट दें, जो इस तथ्य की बैकिंग करती है। इनका ऐतिहासिक सबूत पेश किया जाय। उसका
की उन्हें वही जवाब आया।
उसी पुस्तक के पेज ६० पर लिखा है
कि ‘इस युग में कृषि के क्षेत्र में दो बड़े परिवर्तन हुए। हल के फाल अब लोहे
के बनने लगे। अब पहले की तुलना में बहुत ज्यादा पौधे जिंदा रह जाते थे । इसलिए
पैदावार ज्यादा होने लगे। इसमें कमरतोड़ परिश्रम करना पड़ता था। ये काम ज्यादातर
दास, दासी, और भूमिहीन खेत मजदूर करते
थे।
अर्थात वे लोगों को बंदी बनाकर लाते थे । उन्हें
दास बनाकर काम करवाया जाता था। मगर एन सी आर टी के
पास इन तथ्यों के सपोर्ट में न को तथ्य है न कोई आंकड़ा है, न कोई रेकार्ड है।
जिस वक्त की बात की जा रही है, वह आज से लगभग २५०० साल पूर्व की है। उस समय
के दो एवीडेंस हैं, एक
तो स्वयं ऋगवेद जिसमें इस तरह का कोई जिक्र नहीं है।
दूसरा है मेगास्थनीज की इंडिका । मेगास्थनीज का काल
है ३५० इसवी पूर्व से २९० इसवी पूर्व । मेगास्थनीज एक ग्रक एम्बैसेडर थे। वे मौर्य
डायनास्टी के वम्त जब भारत आए तो पटना में १२ सालों तक रहे। वे पूरे भारत का
भ्रमण किया । उन्होंने इंडिका नामक किताब लिखी। उसकी पेज २०६ में वे लिखते हैं कि
इस देश के बारे में एक खास बात है कि यहां पर एक भी गुलाम नहीं है। यह एनसीईआरटी के स्टेटमेंट से बिलकुल रिवर्स जाता है। उसी
किताब में वे कहते हैं कि अन्य देशों में विदेशियों को तो गुलाम बनाया जाता है, मगर इंडिया ही ऐसा देश है जहां विदेशियों को तो गुलाम नहीं ही बनाते, अपने देश के लोगों को गुलाम बनाने की बात वे सोच ही नहीं सकते।
हकीकत यह है कि हमारा समाज बहुत
सुशिक्षित समाज था। मगर एनसीईआरटी की किताबों में इसके विपरीत पढाया जाता है । फिर हमारे
यहां की कास्ट सिस्टम की बड़ी निंदा की जाती है। दुनियां भर में यह कहा जाता है
कि भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराई है कास्ट सिस्टम। हमारी इतिहास की किताबों
में पढाई जाती है कि ब्राह्मन और क्षत्रिय शासन करते थे और बाकी जातियों का शोषण
करते थे।
मगर हम हिस्टोरिकल डकुमेंट देखते हैं तो हमें एक
भी शोषण का इंसिडेंट नहीं दिखता। मेगास्थनीज एक्सप्लेन
करते हैं कि किसानों का एक बड़ा वर्ग होता था। उनकी कोई मिलिटरी ड्यूटी नहीं होती
थी। जब ये सैनिक आपस में लड़ रहे होते थे, तो भी इन किसानो को या उनकी भूमि को कोई नुकसान नहीं पहुचाया जाता था।
किसानो को कोई चिंता ही नहीं होती थी कि उनको कोई हाथ लगाएगा।
श्री नीरज अत्री को एक साल बाद
एनसीईआरटी का जवाब आया कि हमने ऋगबेद के उन ट्रांसलेशन का प्रयोग किया है जो
अंग्रेजो द्वारा की गयी है। उन ट्रास्लेशन में इंद्र को वारियर लिखा गया है। अत:
इसलिए हमने ऐसा परसेप्शन बनाया किा लोग इंद्र की अराधना इसलिए करते हैं कि इंद्र
उनको जिताएगा। और जब उनको विजय मिलेगा तो वहां से वे धन लूट कर लाएंगे और लोगों को
लूट कर लाएंगे। जबकि पूरे के पूरे
वेद में इस तरह का कोई श्लोक नहीं मिलता जिसकी ऐसी व्याख्या की जा सके। यह एक
जबरदस्ती की व्याख्या है।
फिर वे इंद्र के लिए एक शब्द का
जिक्र करते हैं नरजीत। उनकी व्याख्या है कि वे लोगों को जीत कर कैप्चर कर लेते
थे। इस व्याख्या की हिपोक्रिसी आप देख सकते है। नरजीत का मतलब
कंकरर तो हो सकता है मगर इसका मतलब कैप्चर करने वाला तो कतई नहीं होता। वास्तव
में उन्हें यह दिखाना था कि यहां के लोग और समाज पिछड़े हुए थे। इसलिए उन्होंने
नरजीत को ऐसे ट्रांसलेट किया है कि लोगों को दास बनाया जाता था। उनका बस एक एजेंडा है कि भारत की परम्पराओं पर धब्बा
लगाया जाय। इसी तरह उर्बरजीत का अर्थ है जहां ज्यादा उर्बरा हो, खेती की जा सके। मगर इनलोगों ने उर्बरजीत का अनुवाद किया एक्वारिंग रिसोर्सेज । एन सी ई आर टी ने यह भी माना कि उनके पास कोई
डायरेक्ट रिफ्रेंस नहीं है। उन्होने ट्रास्लेशन का
ट्रास्लेशन किया है। और उस इंटरप्रेटेशन को जस्टीफाई करके टेक्स्ट बुक में
डाला।
इस तरह की टीचिंग आप फिक्शन में तो कर सकते हैं, इतिहास में नहीं कर सकते। इतिहास तो हमेशा तथ्यों
पर आधारित होता है। मगर एक एजेंडा के तहत यह
सब काम किया गया है। अपने देश में इतिहास का राजनीतिकरण किया गया है। ये जो
किताबें हमारे बच्चे पढ रहे हैं यह झूठ पर आधारित है।
श्री अत्री ने उनसे एक और चीज मांगी थी कि वे जो
लूट कर लाते थे उसको आपस में बांटते थे। इसके फैक्ट
दीजिए। इसके लिए उन्होने ऋगवेद के एक श्लोक को कोट किया है, मगर उस श्लोक या उसके हिंदी ट्रासलेशन में कहीं
ऐसा नहीं मिलता कि वे लूटते थे और उस माल को आपस में बांटते थे।
मगर वहां भी उन्होने वही ट्रिक लगाया कि एक अंग्रेज लेखक के ट्रांसलेशन को लिया
गया है। ज्ञातव्य है कि किसी भी ट्रेडिसनर स्कौलर से डिस्कशन नहीं की गयी। हमारे
देश के स्कौलर की ट्रांसलेशन को इस्तेमाल नहीं किया गया। उन्होंने उस जमाने के
अंग्रेज के ट्रांसलेशन का इस्तेमाल किया है, और जस्टिफिकेशन यह दिया कि इस श्लोक में अग्नि को कोट किया
जा रहा है, और चूंकि
अग्नि को देवता माना जाता है, उसको ब्राह्मनो और पुजारियों
से तुलना की जाती है, इसलिए हमने अर्थ लगाया कि ब्राह्मण और
पुजारी धन को आपस में बांट लेते थे। आगे वे लिखते हैं
कि इन तुलनाओं से उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला कि ऐसा किया जाता होगा। एक तरह से अपनी कल्पना को उन्होने तथ्य के रूप में पेश
कर दिया ।
जबकि हकीकत यह है कि समस्त वैदिक साहित्य
में न कही गुलामी का जिक्र है, न किसी लूट का। और
उसके बाद भी जो काल क्रम है उसमे इस तरह की किसी बात का उल्लेख नहीं मिलता है। अब आप सोच सकते हैं कि इतिहास की किताबों के माध्यम से किस
तरह का हिंदू विरोधी षडयंत्र किया जा रहा
है।
एन सी ई आर टी की
कक्षा ११ की किताब में एक जगह संदर्भ आता
है कि वे यूरोप से तुलना करते है और
लिखा है कि अब हम दास प्रथा और
श्रम संबंधी बातों पर भी विचार कर लेते हैं। वे इस तरह लिखते हैं कि भूमध्य सागर और निकटवर्ती पूर्व अर्थात पश्चिमी एशिया
दोनो ही क्षेत्रों में दासता की जड़े बहुत गहरी थी। और ४ थी शताब्दी में इसाई
धर्म ने राज्य धर्म बनने के बाद इस गुलामी की प्रथा को कोई गंभीर चुनौती नहीं दी।
इससे तो ऐसा परसेप्शन मिलता है कि इसाई धर्म
गुलामी की प्रथा के विरूद्ध काम कर रहा था। वह अफैक्टिव तो हुआ मगर गुलामी की
प्रथा को खत्म करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया। इससे जो निष्कर्ष बच्चे निकालेंगे वह इसाइयत की शिक्षा से मेल
नहीं खाता है। क्योंकि इसाइयत वास्तव में गुलामी का समर्थन करता है।
इसी तरह जब इस्लाम को पेश किया जाता
है तो ऐसा बताया जाता है कि मुहम्म्द ने एक नया मजहब शुरू किया।
इसमें काफी अच्छी बाते बतायी जाती है, जैसे चोरी नहीं
करना, खैरात बाटना आदि। साथ में बताया जाता है कि कयामत के
दिन मुक्ति और धरती पर रहते हुए समाज के संसाधनो में मुसलमानों का हिस्सा देने का
आस्वासन दिया जाता है।
अब ज़रा देखें कि इसाइयत या इस्लाम
की ऐसी छवि बनायी जाती है कि इसमें न कोई भेद भाव है, न कोई गुलामी है। इसाइयत
को जानना है तो आप बाइबल पढ सकते हैं और इस्लाम को जानना है तो आप कुरान और पैगम्बर
मुहम्मद की बायोग्राफी पढ सकते हैं।
बायबल के ओल्ड टेस्टामेंट के एक्जोडस
या निर्गमन का २१ वां चैप्टर लेते हैं।
उसमें कहा गया है कि परमेश्वर ने मूसा से कहा कि यह वह अन्य नियम है जो तुम
लोगों को बताआगे। यदि तुम एक हिब्रू दास खरीदते हो तो
उसे तुम्हारी सेवा केवल ६ बरस करनी होगी। ६ बरस बाद वह स्वतंत्र हो जाएगा। उसे
कुछ भी नहीं देना पड़ेगा। यदि तुम्हारा दास होने से पहले उसका विवाह नहीं हुआ है
तो वह पत्नी के विना ही स्वतंत्र हो जाएगा। और यदि दास बनने के पूर्व वह विवाहित
होगा तो स्वतंत्र होने के समय वह अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाएगा। यदि
दास विवाहित नहीं है तो उसका स्वामी उसे पत्नी दे सकेगा और यदि वह पुत्र या
पुत्रियों को जन्म देगा तो उसकी पत्नी, पुत्र एवं पुत्री
दास के नहीं बल्कि उसके स्वामी के होंगे। अपने सेवाकाल के खत्म होनेपर केवल दास
ही स्वतंत्र किया जाएगा।
ओवरऔल यदि आप बाइबल के ओल्ड या न्यू
टेस्टामेंट को देखेंगे तो कहीं भी गुलामी के विरूद्ध आप कुछ नहीं देखेंगे।
इसके विपरीत बाइबल में दास प्रथा के फेवर में काफी कुछ मिलेगा। इसी चैप्टर में आगे है वर्स
नम्बर २० जिसमें लिखा है कि ‘कभी कभी लोग अपने दास या दासियों को पीटते हैं । यदि पिटाई के बाद दास मर
जाय तो हत्यारे को अवस्य सजा मिलनी चाहिए। किंतु वह नहीं मरता है और कुछ दिनो
बाद स्वस्थ हो जाताहै तो उस स्वामी को दंड नहीं दिया जाएगा। जाहे वह अपाहिज ही
क्यों न हो जाय। यह बाइबल की शिक्षा है मगर हमारे बच्चों को इसके विपरीत पढाया
जा रहा है।
अब हम न्यू टेस्टामेंट से एक
उदाहरण पेश करते हैं। वहां लिखा है कि लोग जो अंधविश्वासियों के जूए की नीचे दास बने हैं, उन्हें अपने स्वामियों को सम्मान के योग्य
समझना चाहिए। ताकि परमेश्वर के नाम और हमारे उपदेशों की
निंदा न हो। और ऐसे दासों को भी जिनके स्वामी विश्वासी हैं, इसलिए कि वे उनके धर्म भाई(अर्थात इसाई) हैं, इसलिए
उनके लिए कम सम्मान नहीं दिखाना चाहिए। आप देख सकते
हैं कि क्रिश्चियनीटी के अंदर गुलामी की प्रथा का इंस्टीच्यूशनलाइजेशन किया गया
है। लेकिन यह हमारे बच्चों को नहीं बताया जाता है।
ऐसे ही यदि आप पैगम्बर की जीवनी को
देखेंगे तो आप पाएंगे कि मुहम्मद ने अपने जीवन भर गुलामों को कारोबार किया । लोगों को गुलाम बनाया। उसे बेचा भी और खरीदा भी। इस प्रथा
को प्रोपैगेट भी किया। लगभग दुनियां में दो सौ से ज्यादा हदीसें हैं, मगर ६ हदीसों को सुन्नी इस्लाम में औथेंटिक माना
जाता है, जिसमें एक सबसे ज्यादा मान्य है शाही अल बुखारी की हदीस और मुस्लिम। शाही अल बुखारी को कोट करता हूं। इसमें उल्लेख है
कि एक युद्ध में उन्होंने बहुत लोगो को पकड़ कर लाया और गुलाम बनाया । उसमें एक
लड़की बहुत सुंदर थी जो एक इसलामिक वारियर के कब्जे में थी । जब उसको लेकर वे लोग
मदीना पहुचे तो पैगम्बर उसे कहता है कि वो जो लड़की तुम्हारे पास है वह मुझे दे
दो। तो वारियर बोला कि अभी मैने उसके कपड़े नहीं उतारे हैं। फिर जब अगले
दिन दुबारा वे मिलते हैं तो मुहम्म्द फिर उससे वही मांग करते हैं। तो वह बोलता है कि अल्ला के रसूल मैं यह लड़की आप को दे
देता हँ। फिर अल्ला के रसूल उस लड़की को
बेच देते हैं और उसक बदले कुछ मुसलमानों को छुड़ा कर लाते हैं।
यह प्रथा इस्लाम और क्रिश्चियनीटी दोनो
में लीगल और वैलिड है। लेकिन यदि आप हमारी हिस्ट्र बुक्स देखेंगे तो इसमें इसके
उल्टा पढाया जाता है। पढाया जाता है कि ये दोनो रिलिजन गुलामी के विरूदध काम करते
हैं। और ऋगवेद गुलामी का फेवर करता है।
अगर आप लूट की बात करें तो बाइबल में
ऐसे कई रेफरेंस आते है, जहां बताया जाता कि
आप नन क्रिश्चन पर एटैक करेंगे तो जो आप लूट कर लाएंगे वो आपस में बांट सकते हैं।
लूट के माल मैं प्रोपर्टी, कैश के अलावा उनके बच्चे भी हैं
और पत्नियां भी।
इस्लाम में भी यही बात है। कुरान का ८ वां चैप्टर है अलफाल अर्थात लूटा
हुआ माल। इसमें लूट के माल की ही बात है। उसको कैसे बाटें, उसमें किसका कितना हक बनता है,
ऐसी ही बातें की गयी है। इसकी पहली आयत मे लिखा है ‘ऐ मुहम्म्द मुजाहिद (जो जिहाद करते हैं) लोग तुमसे गनीमत (लूटा हुआ
माल)के बारेमें सवाल करते हैं कि क्या
हुक्म है। कह दो कि गनीमत खुदा और रसूल का माल है।
जो चीज तुम कुफार से लूट कर लाओ उसमें से ५ वां हिस्सा खुदा का और उसके रसूल का
करावतदारों का और यतीमों का है। यह प्रैक्टिस पिछले १००० सालों तक तो फौलौ
होती रही है। जिहाद में जो माल लूटा जाता था उसका २० प्रतिशत मुहम्म्द का और उसक
बाद के काल में खलीफा का होता था। आज भी आइएसआइएस तो इसी रास्ते पर गामजन हैं।

.jpg)

.jpg)








.jpg)
0 टिप्पणियाँ
Please do not enter any spam links in the comment box.