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१९६२ में भारत चीन युद्ध में भारत की हार का मुख्‍य कारण प्रधान मंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्‍णमेनन थे










कुछ दिनो से चीन तथा भारत के बीच सीमा पर विवाद हो रहा है। चीनी सेना भारतीय सेना को १९६२ की लड़ाई की धमकी भी दे रही है। १९६२ में भारत चीन युद्ध में भारत की हार हुयी। अधिकांश लोगों को आज भी पता नहीं कि हम क्‍यों हार गये। यहां हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि क्‍यों और कैसे हम १९६२ की लड़ाई में चीन से हार गये।

हार के कारणो की जांच पर एंडरसन ब्रुक्‍स और भगत रिपोर्ट 

सन् 1962 में भारत के हार के कारणों को जानने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक जांच कमेटी गठित की. जांच का जिम्मा लेफ्टिनेंट जनरल हैंडरसन ब्रुक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत को सौंपा गया। जांच हुयी। रिपोर्ट आया। मगर उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। ये अब तक सार्वजनिक नहीं हो पाई.

हैंडरसन-भगत रिपोर्ट को 1962 में चीन से भारत के युद्ध के बाद तैयार किया गया था. आखिर क्या है इस रिपोर्ट में कि तब के भारत के प्रधान मंत्री पंडित नेहरू ने इस सार्वजनिक नहीं होने दिया। ये रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर कई सवाल खड़ा करता है।

 कौन थे लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन और पीएस भगत  



लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन एक एंग्लो इंडियन थे. उन्होंने ब्रिटिश इंडिया आर्मी में अपनी सेवा दी। जब भारत आजाद हो गया तो इंडियन आर्मी की सेवा की. वे 1964 में रिटायर हुए. रिटायरमेंट के बाद वो आस्ट्रेलिया जाकर बस गए. वहीं पीएस भगत ने भारतीय सेना की ओर से कई युद्ध लड़े. वो भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट जनरल के पद तक पहुंचे। ये दोनों ही काबिल अफसर थे।


एंडरसन और पीएस भगत  रिपोर्ट 58 साल से गोपनीय रही

उन्होंने 1963 में रिपोर्ट बनाकर सरकार को सौंप दी। ये रिपोर्ट प्रधानमंत्री नेहरू को सौंपी गई थी. अगर ये रिपोर्ट सार्वजनिक हो जाती थो नेहरू सरकार को कई सवालों पर जवाब देना मुश्किल हो जाता. सरकार ने इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया। लेकिन हैंडरसन ने इस गोपनीय रिपोर्ट के कुछ अंश आस्ट्रेलिया पत्रकार मैक्स नेविल को दे दी, जिसके आधार पर नेविले ने एक किताब इंडियाज चाइना वार लिखी. इस रिपोर्ट के आधार पर आस्ट्रेलियाई पत्रकार मैक्स नेविले ने जो किताब लिखी, उसके कुछ अंश इस तरह हैं.

जिसमें यह बताया गया था कि इस हार के लिए सबसे ज्‍यादा जिम्‍मेवारी भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू और उसकी फौरवार्ड पॉलीसी की बनती थी। 


दूसरी जिम्‍मेवारी रक्षा मंत्री वी के कृष्‍णमेनन की थी जिसने सेना को अतिशय कमजोर दशा में ला खड़ा किया था। वे सैन्‍य नेतृत्‍व के साथ वार्ता का व्‍यौरा नहीं रखते थे। किसी भी बड़े फैसले के समय किसी को अहम जिम्‍मेदारी नहीं दी जा सकी। उन्‍होंने जो भी फैसले लिए वे बिलकुल लापरवाही भरे थे।  

तीसरा नम्‍बर आता है इंटेलिजेंस ब्‍यूरो चीफ बी एम मलिक का। आइ बी के पास जो भी जानकारी थी वह बिलकुल काल्‍पनिक थी । उसका धरातल से कोई लेना देना नहीं था। उन्‍हें ऐसा लग रहा था कि भारत चीनी सीमा के पार जाकर अपनी चौकी बना लेंगे तो चीनी इस पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं देंगे। वे बदले में अपनी सेना का प्रयोग नहीं करेंगे।
 
सच्‍चाई यह है कि चीन १९६० से ही इस फॉरवार्ड भारतीय पोस्‍ट बनाने से सचेत हो गया और अपनी तैयारी में जुट गया। भारत के आइबी को कुछ पता ही नहीं चला।

इस हार के चौथे विलेन थे लेफ्टीनेंट जेनरल बी एम कौल। वे नेहरू के रिश्‍तेदार भी थे और नेहरू ने उन्‍हें जबरदस्‍ती प्रमोट करके इस पद तक लाया था। वे सेना के चौथी कोर के कमांडर थे। कौल ने एकदम असंभव लक्षों के बारे में सोचा। कौल ने सरकार के इस गलतफहमी को सपार्ट किया कि चीनी सेना बिलकुल प्रतिक्रिया नहीं देगी। युद्ध शुरू होते ही कौल छुट्टी लेकर दिल्‍ली आ गये और जब तक युद्ध चला वे छुट्टी पर ही रहे

पांचवें विलेन हैं विदेश सचिव एम जे देसाई। २२ सितंबर १९६२ को मेनन के साथ मिटिंग में उन्‍होंने  वही बात दुहराई कि भारत के फॉरवार्ड पोलिसी पर चीन कोई प्रतिक्रिया नहीं देगा।

इसके ६ठे विलेन हैं डीजीएमओ ब्रिगेडियर डी के पालित। वे १९६२ युद्ध के समय डायरेक्‍टर जेनरल ऑफ मिलिटरी औपरेशन थे। इन्‍होंने ४ थी मिलि‍टरी डिविजन जो सीमा पर लड़ रही थी उसे खुलेआम ऐलान कर दिया था कि फॉरवार्ड पालिसी पर अमल करो । चीन बिलकुल प्रतिक्रिया नहीं देगा। उन्‍होंने यहां तक कहा कि चीनी सेना जंग लडंने के लायक नहीं है।

नेहरू को लगता था कि चीन कभी युद्ध नहीं करेगा

वर्ष 1962 के आधा गुजरते गुजरते समूचे देश में चीन से युद्ध का खतरा मंडराता हुआ महसूस होने लगा। युद्ध से ऐन पहले भारत ने अपनी ज्यादातर फौजें पाकिस्तान सीमा पर लगा रखी थीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने और रक्षा मंत्री कृष्णामेनन को लगता था कि युद्ध अगर कभी हुआ तो पाकिस्तान से ही होगा, चीन से कतई नहीं।

चीन तिब्‍बत हड़पने के बाद लगातार भारतीय भूमि हड़पता जा रहा था

तिब्बत पर कब्जे के बाद चीन आहिस्‍ता आहिस्‍ता भारतीय भूमि पर कब्‍जा करता चला गया। वर्ष 1960 तक चीन ने न केवल भारत के बड़े भू-भाग को हड़प चुका था बल्कि वह लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा करके  वहां सडक भी बना ली थी. इसके जवाब में जवाहर लाल नेहरू ने  फारवर्ड पॉलिसी अपना कर मैकमोहन रेखा पर भारतीय चौकियां बनाने का निर्देश दिया।

चौकियां ऐसी जगह बनीं, जहां सब कुछ मुश्किल था

चौकियां बनाकर जवान ऐसे दुर्गम और पहाड़ी क्षेत्रों में भेजे गये, जहां पहुंचना और रहना कतई आसान नहीं था कहीं बेहद घने जंगल थे तो कहीं ऐसी जगहों पर चौकियां बनायी गयीं जहां पानी का नामोनिशान ही नहीं था, तो कहीं कहीं भीषण ठंड था वहां खाद्य और अन्‍य सामानों की आपूर्ति मुश्किल थी न खाना ठीक ढंग से पहुंच पा रहा था और न पानी सैनिकों के पास इस इलाके और ठंड के हिसाब के कपड़े भी नहीं थे प्रतिकूल हालात में सैनिक बहुत बुरे हाल में थे

नेहरू को बार बार चीन को लेकर चेताया गया था और उसने अनदेखी की

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को देश के नेता बार बार समझा रहे थे कि चीन धोखेबाज देश है, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता वल्लभ भाई पटेल ने भी अपनी मौत से पहले ऐसी ही एक चिट्ठी नेहरू को लिखी थी मगर नेहरू को लग रहा था कि चीन कभी हमला नहीं करेगा

सेना की हथियारों की मांग पर ध्यान नहीं दिया गया

1961 के मध्य तक चीन के सुरक्षा बल सिक्यिांग-तिब्बत सडक़ पर वर्ष 1957 की अपनी स्थिति से 70 मील आगे बढ़ चुके थे वे भारत की 14 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा कर चुके थे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई सरकार आलोचना के घेरे में आ गई आलोचनाओं से तंग आकर नेहरू ने तत्कालीन सेना प्रमुख पीएन थापर को चीनी सैनिकों को भारतीय इलाके से खदेडने का आदेश दिया

थापर बहुत पहले से सेना की बदहाली से रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन और प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू को अवगत करा रहे थे। वे  बार बार वह हथियारों औऱ संसाधनों की मांग कर रहे थे नेहरू ने कभी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया शायद प्रधानमंत्री को रक्षा मंत्री वी. कृष्णा मेनन की बातों पर ज्यादा भरोसा था,  जिन्होंने सेना की क्षमता और तैयारी के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बता रखा था

कौल को पूर्वी कमांड का कमांडर नियुक्त करना गलत फैसला था

अक्तूबर 1962 में लेफ्टिनेंट जनरल वी जी कौल को पूर्वी कमांड में नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) का कोर कमांडर नियुक्त किया गया उनकी नियुक्ति पर विवाद ज्यादा थे सेना के लोग खुश नहीं थे कौल के पास लड़ाई का अनुभव नहीं था लेकिन वे पंडित नेहरू के नजदीकी और रिश्‍तेदार थे। सैन्य अधिकारी मानते थे कि वह स्थितियों से निपटने में सक्षम नहीं हैं। युद्ध के ठीक पहले  जब कौल ने नेहरू और मेनन को बताया कि भारतीय सेनाएं तैयार नहीं हैं


चीनी सेना तैयार थी हमारी तैयारी नहीं थी

जब चीन ने हमला किया तब मैकमोहन लाइन की चौकियों पर भारतीय सेना ठंड, खाने और रसद से जूझ रही थी। पीछे से सप्लाई नहीं आ रही थी। वहीं चीन की सेनाएं पूरी तरह से तैयार थीं।

कौल के आदेश व्यावहारिक नहीं थे

17 अक्टूबर 1962 को नेहरू के पसंदीदा पूर्वी कमांड के लेफ्टिनेंट जनरल कौल ने   तबीयत बिगड़ने का बहाना किया और दिल्‍ली आ गये हालांकि डॉक्टरों का कहना था कि उनकी तबीयत खराब तो थी लेकिन गंभीर नहीं कौल ने दिल्ली से ही फोन पर सेना को आदेश देने शुरू किये, जिसे मानना वाकई सेना के बहुत मुश्किल था ये आदेश व्यवहारिक भी नहीं थे लिहाजा सेना के साथ सैन्य अधिकारियों के मनोबल पर लगातार उल्टा असर पड़ा

चीन ने लड़ाई नहीं शुरु की, नेहरू की फौरवार्ड पौलीसी लड़ाई के लिए तात्‍कालिक कारण बना


देखा जाय तो चीन ने लड़ाई नहीं शुरु की। यही नेहरू की फौरवार्ड पौलीसी लड़ाई के लिए तात्‍कालिक कारण बना। यह नेहरू की काफी मूर्खतापूर्ण रणनीति थी। बिना किसी  पूर्व सूचना के इनलोगों ने भरतीय सेना को गलतफहमी में डाल दिया। और चीनी सेना ने भारतीय सेना को गाजर मूली  की तरह मार डाला, काट डाला, और लाशों के ढेड़ लगा दिए।

यह कहानी साल १९४७ से शुरु होती है

यह कहानी साल १९४७ से शुरु होती है। साल १९४७ के अगस्‍त में भारत आजाद हुआ था। प्रधान मंत्री के लिए जो एलेक्‍शन हुआ उसमें सरदार वल्‍लभ भाई पटेल १५ में से १२ मत पाकर चुन लिए गये । मगर जबाहर लाल नेहरू ने महात्‍मा गांधी से पैरबी की और दवाब भी बनाया। और भारत के प्रधान मंत्री बनने में सफल रहे। जबकि वे न तो योग्‍यता में, न तो सिनियरिटी में, और ना तो समर्थन की दृष्टि से, पटेल साहब की बरोबरी करते थे। इसके अलाबा उन्‍हें पार्टी में ज्‍यादातर लोग पसंद नहीं करते थे। और उनका जाती जिंदगी भी गंदगी से भरा था, मगर अभी उसका जिक्र नहीं करुंगा।

तिब्‍बत पर चीन का कब्‍जा और भारत का समर्थन

उधर दो साल बाद १९४९ में चाउ ऐन लाइ के नेतृत्‍व में चीन में एक कौम्‍युनिस्‍ट सरकार का गठन हुआ, जिसे पिपल्‍स रिप‍ब्लिक ऑफ चाइना कहा जाता है। वर्ष १९५० में चीन ने भारत और चीन के बीच पड़ने वाले तिब्‍बत पर हमला कर दिया। धीरे धीरे उसने सारा तिब्‍बत पर कब्‍जा कर लिया और उसे चीन का एक राज्‍य घोषित कर दिया। मगर भारत ने उस पर विरोध नहीं किया।
 
इसके पहले भारत और चीन के बीच की सीमा लद्दाख के एक छोटे से सीमा से लगती थी, वह अब वह बढ़कर हिमाचल प्रदेश, उत्‍तरा खंड, और पूर्वोतर भारत तक फैल गयी। यह भारत के लिए एक आसन्‍न खतड़े का सूचक था। पटेल साहब ने इस खतरे से नेहरू को आगाह भी किया था। 

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन के इस अतिक्रमण का कोई विरोध नहीं किया। जबकि अमेरिका समेत पश्चिम के कई महाशक्तियों ने इसका विरोध किया। पंडित नेहरू ने यहां तक कहा कि तिब्‍बत तो चीन का ही हिस्‍सा था। जबकि ऐतिहासिक रूप से यह सफेद झूठ है। तिब्‍बत इससे पूर्व हमेशा से एक स्‍वतंत्र देश था। तिब्‍बत में इसका भरपूर विरोध भी हुआ। मगर नेहरू इस लड़ाई में चीन के साथ खड़े रहे। देश के गृह मंत्री वल्‍लभ भाइ पटेल नेहरू के इस रवैये से सहमत नहीं थे। 

अरूणाचल प्रदेश में वर्ष १९१३ में  भारत चीन और इंगलैंड ने मिलकर  मैक मोहन लाइन सीमा बनायी थी। चीन में भारत के एम्‍बैसेडर के एम पनिक्‍कर थे। उनको बुलाकर चीनी सरकार कहा कि हम इस सीमा को नहीं मानत हैं। उसने नेहरू को यह सूचना दी मगर उन्‍होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसे नजरअंदाज किया।

१९५४ को भारत और चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ

१९५४ के २९ अप्रैल को भारत और चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ। यह पूरी तरह चीन के पक्ष में था। भारत ने इसमें तिब्‍बत को औपचारिक रूप से चीन का हिस्‍सा स्विकार कर लिया। पटेल साहब इसके पक्ष में नहीं थे, मगर नेहरू ने उनके सलाह को नजरअंदाज किया। पंडित नेहरू ने इसी के साथ हिंदी चीनी भाई भाई का नारा दिया गया। यह समझौता काफी दोषपूर्ण था। भारत जिसको सीमारेखा मानता था उसे इसमें ठीक प्रकार से दर्शाया नहीं गया था। 
चीन ने पहले इसे वार्ता से निपटाने की पूरी कोशिश की 

1954 में पंचशील समझौते के बाद चाव एन लाइ भारत आए। भारत ने उनके साथ कई मुद्दों पर बात की मगर सीमा रेखा पर कोई बात नहीं हुयी। १९५६ के नोवेंबर में चाव एन लाइ राजकीय दौरे पर भारत आए थे। वे नेहरू के अलावा अन्‍य कई मंत्रियों, गोविंद वल्‍लभ पंत, लाल बहादुर शास्‍त्री तथा अन्‍य कुछ मंत्री से मिले मगर नेहरू ने उन्‍हें पटेल साहब से नहीं मिलने दिया। चाव एन लाइ ने पूरी कोशिश की कि बातचीत से इस मसले का हल निकल जाय। उनका दावा मात्र ४० हजार वर्ग किमी का था। मगर १९६२ की लड़ाई के बाद चीन ने हमारा ७२ हजार वर्ग किमी क्षेत्र छिन लिया और हम आज तक उसे वापस नहीं ले पाए।

तिब्‍बत से सिनजियांग तक की सड़क बनकर तैयार मगर भारत को खबर नहीं

१९५७ के सितम्‍बर को पीपल्‍स डेली में एक खबर छपी कि तिब्‍बत से सिनजियांग तक की सड़क बनकर तैयार हो गयी है। यह भारत के लिए एक बड़ा झटका था। यह सड़क भारत के अक्‍साई चीन से होकर गुजरती थी। भारत को इसका पता तब चला जब पीपल्‍स डेली में एक खबर छपी।

नेहरू ने चाउ एन लाइ को एक चिट्ठी लिखी। उसमें पंडित जी ने अपनी आशंका जतायी थी। चाउ एन लाइ ने उस पत्र का जवाब एक महीने बाद दिया। उन्‍होंने उस पत्र में लिखा कि भारत और चीन की सीमा कभी भी औपचारिक रूप से तय नहीं की गयी थी। और चीन ने इस मुद्दे को अबतक इसलिए नहीं उठाया क्‍योंकि वह कुछ अन्‍य कामों में व्‍यस्‍त था । इससे यह साफ हो गया कि चीन का रवैया बदल रहा था और चीन की नीयत साफ नहीं थी।

तिब्‍बत में चीन के खिलाफ बगाबत

इसी दौरान एक घटना घटी। तिब्‍बत में चीन के खिलाफ बगाबत हो गयी। दलाई लामा को लगने लगा कि चीन उन्‍हें गिरफ्तार कर लेगी। वे अपने कुछ साथियों के साथ भाग कर भारत आ गये। इससे पूर्व जब वे भारत आए थे तो नेहरू ने उन्‍हें लौटा दिया था।


तिब्‍बत के दलाई लामा तिब्‍बत में चीन की नीतियों से पड़ेशान थे। वे भागकर भारत आए और नेहरू से मिले और भारत में शरण लेने की मांग की। लेकिन नेहरू ने उनकी इस बात को इनकार कर दिया। दलाई लामा को वापस तिब्‍बत लौटना पड़ा।


दलाई लामा को इस बार भी नेहरू वापस भेजने के मूड में थे । मगर दलाई लामा ने कहा कि अब मैं तिब्‍बत नहीं जा सकता हूं चाहे भारत मुझे जेल में ही क्‍यों न डाल दे। नेहरू की कांग्रेस पा‍र्टी को अल्‍पसंख्‍यकों का बोट मिलता था इसलिए उसने बौद्धों को नाराज करना उचित नहीं समझा। दलाई लामा तबसे भारत में ही रहने लगे। इससे चाउ एन लाइ नाराज हो गया।

नेहरू पर जानकारी छुपाने का आरोप भी लगा

संसद में नेहरू का विरोध बढ़ने लगा। उनपर जानकारी छुपाने का आरोप भी लगा। इन आरोंपो से बचने के लिए उन्‍होंने संसद में स्‍वेत पत्र जारी किया। मगर उसमें भी काफी कुछ छुपाया गया था। लिहाजा संसद में उनका विरोध कम नहीं हुआ।

आर्मी चीफ थिमैया चीन को दुश्‍मन देश मानते थे, लेकिन रक्षा मंत्री नहीं

उनका दोस्‍त वी के कृष्‍णमेनन रक्षा मंत्री थे।  आर्मी चीफ थे के एस थिमैया । उनके आपस में विचार मेल नहीं खाते थे। आर्मी चीफ के एस थिमैया चीन को दुश्‍मन देश मानते थे। लेकिन रक्षा मंत्री वी के कृष्‍ण मेनन ऐसा नहीं मानते थे। थिमैया सैन्‍य शक्ति बढाने पर जोर दे रहे थे मगर रक्षा मंत्री वी के कृष्‍णमेनन इस पक्ष में नहीं थे।


१९५९ से ही चीन भारत के ४० हजार वर्ग किमी पर दावा जताया रहा था


१९५९ के सितम्‍बर को चाउ एन लाइ ने नेहरू को एक चिट्ठी लिखी। उन्‍होंने लिखा कि हमारी सरकार मैक मोहन लाइन को मान्‍यता नहीं देती है। उसमें चाउ एन लाइ ने भारत के ४० हजार वर्ग किमी पर अपना दावा जताया।

नेहरू ने उस पर कोई विरोध ही नहीं जताया । संसद में महाबीर त्‍यागी ने जब यह पूछा कि आप उसका दावा क्‍यों स्विकार कर रहें हैं तो पंडित नेहरू ने कहा कि उस जमीन पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता।

४ थी डिविजन जिसको नेफा भेजा गया, उसकी ट्रेनिंग पहाड़ी इलाकों पर लड़ाई के लिए नहीं हुयी थी

२३ अक्‍टूबर १९५९ को नेहरू ने एक अहम बैठक की। जिसमें कश्‍मीर और नेफा में तैनात भारतीय सैनिकों का व्‍यौरा दिया गया। ४ थी डिविजन जो पंजाब में तैनात थी, उसे नेफा भेजा गया। लेकिन यह भी एक गलत फैसला था। उसकी ट्रेनिंग पहाड़ी इलाकों पर लड़ाई के लिए नहीं हुयी थी। सीमा पर उनकी तैनाती होती उससे पहले ही चाउ एन लाइ ने नेहरू के पास एक प्रस्‍ताव भेजा कि भारत और चीन की सेना लद्दाख में लाइन ऑफ एक्‍चुअल कंट्रोल पर और नेफा में मैक मोहन लाइन से २० किमी पीछे हट जाय। इसका मतलब साफ था कि सियाचीन चीन के पास रहे और नेफा भारत के पास रहे। नेहरू इस प्रकार का समझौता करना कठिन था। मगर वे इन व्‍यौरा को छुपाते रहे।

१९६० का अप्रैल को चाउ एन लाइ फिर भारत आए

१९६० का अप्रैल को चाउ एन लाइ फिर भारत आए। वे एक हफ्ता यहां रूके। नेहरू से मिलकर उन्‍होंने अपना प्रस्‍ताव दुबारा दुहराया। नेहरू ने उसे ठुकरा दिया। १९६० के ६ दिसम्‍बर को संयुक्‍त राष्‍ट्र में चीन की सदस्‍यता के लिए नेहरू ने वकालत की। जबकि अमेरिका ने यह सीट भारत को ऑफर किया था। नेहरू को लगा था कि चीन खुश होगा और हमसे यद्ध नहीं करेगा। मगर ऐसा नहीं हुआ।

भारत का ७२ हजार बर्ग किमी जमीन चीन के कब्‍जे में चली गयी

१९६२ के २० अक्‍टूबर को चीन की तरफ से गोली बारी शुरू हो गयी। जिसने बाद में युद्ध की शक्‍ल ले ली। चीन ने लद्दाख से नेफा तक हमला बोल दिया। युद्ध के शुरूआत में ही भारतीय सेना कमजोड़ पड़ने लगी। उसे हर मोर्चे पर पीछे हटना पड़ा। उनके पास लड़ाई के लायक ना तो साधन थे, न तैयारी थी । वी के कृष्‍ण मेनन रक्षा मंत्री ने युद्ध के बीच में ही इस्‍तीफा दे दिया।

१९६२ के २० नवमबर को चीनी सेना ने सीज फायर लागू कर दिया। तब तक भारत बहुत कुछ गवा चुका था। भारत का ७२ हजार बर्ग किमी जमीन चीन के कब्‍जे में चली गयी। १३०० सैनिक शहीद होगये। ११०० सैनिक घायल हो गया। १७०० सैनिक लापता हो गये। ४००० सैनिक बंदी बना लिए गये। इस युद्ध में भारत ने अपनी वायुसेना का इस्‍तेमाल नहीं किया। वह चीन के वायुसेना से अधिक ताकतबर थी।

उस हार का एक बड़ा कारण था कि वी के कृष्‍णमेनन हमारे रक्षा मंत्री थे

यह भारत पर सबसे दुर्भाग्‍यशाली विदेशी आक्रमण था। इस लड़ाई में भारत शर्मनाक तरीके से हारा था। उस हार का एक बड़ा कारण था कि वी के कृष्‍णमेनन हमारे रक्षा मंत्री थे। वे बिलकुल नालायक आदमी थे। नेहरू के अतिशय प्रिय थे। रक्षा मंत्रालय की जववदेही से बचते रहते थे। हमेशा विदेश यात्रा पर रहते थे। 
१९६० में एक बार जब संसदमें बहस चल रहीं थी तो उन्‍होंने एक प्रस्‍ताव रखा कि पाकिस्‍तान तो हमारा दोस्‍त हो गया। हमने उनसे समझौता कर लिया। पाकिस्‍तान ने बोल दिया है कि वो तो कभी हमला करने वाला नहीं है। चीन से हम पंचशील समझौता कर चुके हैं। हमारे आस पास और कोई हमारा दुश्‍मन है नहीं। हमको फिर सेना रखने की कोई जरूरत नहीं है। हमें सेना हटा देनी चाहिए। संसद में किसी ने पूछा कि यदि कभी किसी ने हमला कर दिया तो हम क्‍या करेंगे। तो उन्‍होंने कहा कि फिर हम पुलिस से काम चला लेंगे। हिंदुस्‍तान की पुलिस काफी है। यह वक्‍तव्‍य संसद में रक्षा मंत्री देता है जिसके विदेशी दौरे पर सरकार का एक बड़ा रकम खर्च होता था। जबकि रक्षा मंत्री को विदेश दौरा करने की कोई वजह समझ में नहीं आती। 

एक दिन कैबिनेट कमीटी की मिटिंग में उन्‍होंने प्रस्‍वाव रखा कि सेना की जरूरत नहीं है तो उसपर इतना खर्च क्‍यों करें ?इसका बजट कम कर दो। इस तरह हिंदुस्‍तान की सेनाओं पर होने वाले खर्चे का बजट उन्‍होंने कम करा दिया। उसके बाद उन्‍होंने निर्णय लिया कि भारत में आयुध निर्माण के कारखानों को बंद करा दिए। जिन कारखानों में गोला बारूद बनते थे उसे बंद कर रक्षा मंत्री वी के कृष्‍णमेनन ने कॉफी और चाय के प्‍याला बनाने का काम आरंभ कर दिया। उसमें टेनिस के शू और अन्‍य खेल के समग्री का निर्माण होने लगा।

वी के कृष्‍णमेनन रक्षा मंत्री के ये बयान जब समाचारों में आते थे तो चीन को लग गया कि भारत का रक्षा मंत्री काफी बेवकूफ आदमी है। वह प्रधान मंत्री नेहरू के खासम खास आदमी भी  हैं। यह सच भी था।

चीन काफी समय से अक्‍साई चीन हथियाने के ताक में बैठा था। चीन ने नेफा में हमला किया। आज वह अरुणाचल प्रदेश कहलाता है। वहां हमारी आर्मी नहीं थी तो चीनी सैनिक दनदनाते हुए घुसते चले गये।  भारत की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं हुआ। चीनी सेनिकों ने मनमानी किया। नेफा प्रदेश में चीनी सैनिकों ने हजारों बहनो के साथ बलातकार किया। आम लोगों को बुरी तरह से मारा पीटा।

जवाहर लाल नेहरू ने  १९६० में फौरवार्ड पोलीसी अपनाया

यह नेहरू की गलती के कारण हुआ। उन्‍होंने १९६० में फौरवार्ड पोलीसी अपनाया। अर्थात भारत की सेना को कहा गया कि वे अक्‍साई चीन लाइन ऑफ एक्‍चुअल कंट्रोल और नेफा में मैक मोहन लाइन के दूसरी तरफ चीन के सीमा में घुसकर अपना पोस्‍ट्स अर्थात चौकियां बना लो। उनका मानना था कि चीन इससे भारत के धौंस में आ जाएगा और वह इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं करेगा। यह भारत के लिए आत्‍म हत्‍या जैसा कदम था।  इस पर चीन ने अपनी अपत्ति जाहिर की। यह युद्ध का एक बड़ा और तात्‍कालिक कारण बना।

पंडित जी चीन पर जरूरत से ज्‍यादा भरोसा करते थे

पंडित जी की एक और बेवकूफी यह थी कि वे चीन पर जरूरत से ज्‍यादा भरोसा करते थे। वे हमेशा से उसके पक्ष में खड़े रहते थे। जबकि पटेल साहब ने उन्‍हें पहले ही चेतावनी दी थी कि चीन हमारा दोस्‍त नहीं हो सकता है। मगर नेहरू ने उस पर कान नहीं दिया। वे पटेल साहब पर व्‍यंग करते थे कि उनको विदेश नीति की समझ ही नहीं है।

१९६२ की लड़ाई में भारत ने एयर फोर्स और नेवी का इस्‍तेमाल नहीं किया


१९६२ की लड़ाई में भारत ने एयर फोर्स और नेवी का इस्‍तेमाल नहीं किया जबकि भारत का एयर फोर्स और नेवी चीनी एयर फोर्स और नेवी से श्रेष्‍ठ था। जवाहर लाल ने रक्षा मंत्री वी के कृष्‍णमेनन पर अत्‍यधिक भरोसा किया। बीएम कौल आरमी चीफ थे । जैसे ही लड़ाई शुरू हुयी वे बीमारी का बहाना बना कर दिल्‍ली आ अस्‍पताल में भर्ती हो गये। वे हकीकत को पहले से छुपा रहे थे। वे लड़ाई की सही रणनीति नहीं बना पाये।
हमारे सैनिकों के पास आधुनिक हथियारों का अभाव था। गोला बारूद का भी अभाव था। यहां तक कि उस उंचाई पर उनके पास ठंढ से बचने के लिए आवश्‍यक कपड़े नहीं थे। चीन १९६० से ही युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी थी। तिब्‍बत में उसने बेतहासा हथियार जमा कर लिए थे। सड़कें बना डाली थी। २० अक्टूबर १९६२ में लड़ाई शुरू हुयी और २४ अक्टूबर तक वे नेफा अर्थात आज के अरुणाचल प्रदेश में ६० किलोमीटर अंदर घुस आए थे।

रक्षा रणनीति पोटेंसियल दुश्‍मनों के क्षमता को ध्‍यान में रखकर बनायी जाती है

रक्षा रणनीति हमारे पोटेंसियल दुश्‍मनों के क्षमता को ध्‍यान में रखकर बनायी जाती है। और हमरी विदेश नीति दुसरे देशों के इरादों को ध्‍यान में रखकर बनायी जाती है। जवाहर लाल नेहरू की यह प्राथमिक गलती थी कि उन्‍होंने इन दोनो विषयों  को समझ नहीं सके। उन्‍होंने भारत की सुरक्षा व्‍यवस्‍था के साथ लपरवाही की। चीन से दोस्‍ती के नाम पर जवाहर लाल नेहरू ने अपने कई हितों को नजरअंदाज किया।

१९५९ में और १९६० मे अमेरिका ने भारत को यूएन सेकुरिटी काउंसिल में स्‍थान ग्रहण का किया था अनुरोध


१९५९ में जब चीन में कोम्‍युनिस्‍ट शासन की स्‍थापना हुयी तो अमेरिका ने उसे युएनओ से निकालने का फैसला ले लिया। उसने भारत से कहा कि यूएन सेकुरिटी काउंसिल में जो जगह खाली हुयी है उसे आप ग्रहण करिए। आपको वीटो का अधिकार भी मिल जाएगा। जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि यह चीन की जगह है इसलिए हम इसे ग्रहण नहीं कर सकते। फिर दूसरी बार १९६० में युएनओ में वीटो को अधिकार भारत को पेश किया गया मगर भारत ने यह कह कर मना कर दिया कि इस पर चीन का अधिकार बनता है। नेहरू कहते थे कि भारत को इस शक्ति की जरूरत ही नहीं है। क्‍योंकि भारत एक गुट निर्पेक्ष राष्‍ट्र है।

राष्‍ट्रीय हित में किसी उदार वाद की जगह नहीं है

राष्‍ट्रीय हित में किसी उदार वाद की जगह नहीं है। यह  जवाहर लाल नेहरू की मूर्खता थी या बेवकूफी थी। सरदार पटेलने चिट्ठी लिखी कि यह सीट आप ले लें। आपने चीन को तिब्‍बत हड़पने दिया। चीन की सीमा और  भारत की सीमा के बीच कई विवाद पड़े हुए हैं। उसका अभी तक कोई समाधान नहीं हुआ । ऐसे में यह सेकुरिटी काउंसिल का सीट हमारे काम आने वाला है। मगर जवाहर लाल नेहरू फिर भी तैयार नहीं हुए। उन्‍होंने उस पत्र का यह जवाब दिया कि यह फैरेन पॉलीसी दूसरे तरह का मामला है। इसे आप होम मिनिस्‍ट्री की तरह मत देखिए। एक तरह से उन्‍होंने व्‍यंग किया कि आपको विदेश नीति की समझ नहीं है।

पटेल को इन सभी बातों की समझ जवाहर लाल नेहरू से कहीं बेहतर थी

जबकि हकीकत इसके बरक्‍स है। पटेल को इन सभी बातों की समझ जवाहर लाल नेहरू से कहीं बेहतर थी। सच तो यह है कि जवाहर लाल की बेवकूफी का घाटा आज भी देश उठा रहा है।

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