आपका
वार क्रिमिनल सुभाष चंद्र बोस रूस पहुंच चुका है, इसका सज्ञान लें और जो भी उचित है, वह कीजिए: आपका विश्वासपात्र, जवाहर
लाल नेहरू
वर्ष
१९४५ में दूसरा आलमी जंग खत्म हो गया। जापान हार चुका था। सुभाष चंद्र बोस रूस
पहुंच चुके थे। जब पंडित नेहरू को इसका पता चला तो उन्होंने उस समय के इंगलैंड के
प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली को एक पत्र लिखा कि मुझे विश्वसनीय सूत्रों से पता चला
है कि आपका वार क्रिमिनल सुभाष चंद्र बोस रूस पहुंच चुका है। वह स्टालिन की शरण में
पहुंच गया है। रूस आपका एलाई है। वह इस तरह ब्रिटेन और अमेरिका के विश्वास के साथ
दगाबाजी कर रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। कृपया इस बात का सज्ञान लीजिए और जो भी उचित
है, वह कीजिए। (आपका विश्वासपात्र, जवाहर
लाल नेहरू )
आम भारतीयों से यह बात
छुपायी गयी। आम भारतीय यह सोचकर परेशान होगा कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने ही देशवसी
और स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले साथी के विरुद्ध ऐसे षडयंत्र का हिस्सा कैसे हो सकता है?
मगर यह सच है। इसे समझने
के लिए आपको यह जानना होगा कि पंडित नेहरू एक पतित आदमी थे। कांग्रेस में वे किसी को
पसंद नहीं आते थे। अकेला महात्मा गांधी एक ऐसे आदमी थे जो पंडित जी को सर्वाधिक पसंद
करते थे। इसी कारण पार्टी के भीतर वे अयोग्यता के बावजूद आगे बढ़ते रहे। आइए पंडित
जी को समझने की कोशिश करते हैं। उनकी कुछ अन्य बेवकूफियां और नीचता पर नजर डालते हैं।
भ्रष्टाचार
की जननी थे पंडित जवाहर लाल नेहरू
भारत
के पहले प्रधान मंत्री थे पंडित जवाहर लाल नेहरू। उन्हें आधुनिक भारत के इतिहास
में ब्लंडर ब्याय के
नाम से जाना जाता है। ब्लंडर का अर्थ होता है भारी ग़लती। भारत आज ऐसे कई समस्याओं
से जूझ रहा है जिसका हल निकलता हुआ नहीं दिख रहा है। इसको समझने के लिए हमें कम से
कम १०० बरस पीछे जाकर इतिहास में झांकना होगा। नेहरू जी ने भयानक गलतियां की। नेहरू
की सारी मूर्खता का तो हम एक लेख में जिक्र नहीं कर पाएंगे कतिपय हम
इसमें उनकी विशेष मूर्खतओं की बात करेंगे।
कांग्रेस
के भीतर सोवियत ब्लॉक का गठन
पंडित
जी सोवियत विचारधारा के प्रभाव में आए और सोवियत विचारधारा का समर्थन करते रहे, कम्युनिस्टों
का समर्थन करते रहे। यहां
तक कि चीन के प्रेम में वे इतने पागल हो गए, सोवियत
प्रेम में इतने पागल हो गए कि स्वतंत्रता के बाद भी उन्होंने सारी की सारी नीतियां
सोवियत संघ के निर्देश के आधार पर और चीन के हित को देखते हुए बनायी।
यह
किस्सा आरंभ होता है 1925 से। 1925 में
अपनी पत्नी के इलाज के लिए पंडित जी स्विटजरलैंड गए थे। वहां पर वे कोमिंटर्न
(कोम्यूनिस्ट इंटरनैशलनल) के प्रभाव में आए। यह सोवियत संघ का एक
अंतर्राष्ट्रीय संगठन था। इसका मुख्य उद्देश्य था विश्व में सोवियत संघ
की तर्ज पर कोम्यूनिट शासन स्थापित करना।
सोवियत
क्रांति और कोमिनटर्न
सोवियत
क्राति स्वयं बाहर से थोपी हुई क्राति थी। वह एक रक्तरंजित क्रांति थी।
उसकी
शुरुआत तो समाजवादी संगठन द्वारा हुई थी, मगर
बाद में उसपर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया। समाजवादी और कम्युनिस्टों में मुख्य
फर्क यह माना जाता है कि समाजवादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास रखते हैं मगर
कोम्यूनिट अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। वे
रक्तरंजित प्रक्रिया में विश्वास रखते हैं।
जो
मुख्य क्रांति हुई थी, वह
१९१७ के फरवरी में हुई थी। फरवरी क्रांति में ना तो लेलिन थे, ना
तो ट्रोटस्की थे, ना
तो बुखारिन थे। उसमें ऐसे कोई भी नहीं थे जो बाद में और कम्युनिस्ट पार्टी के स्तंभ बने। जर्मनी ने उन्हें बाद में अप्रैल में चुपचाप वहां पहुचवाया। लेनिन ने सोवियत यूनियन के साथ
पूरी तरह से धोखा किया था ।
जब
सोवियत संघ पहले विश्व युद्ध में लड़ रहा था, तब
उन्होंने रूसी सेनाओं को आवाहन किया कि तुम मत लड़ो। बजाए जर्मनी के खिलाफ लड़ने
के, तुम
जार से लड़ो। वे एक तरह से सेना को राजद्रोह के लिए उकसा रहे थे। उसकी वजह से
सोवियत सेना में कई समस्या उतपन्न हो गयी। और प्रथम विश्व यु्द्ध में सोवियत सेना की हार हुयी। उसकी वजह से अंसंतोष पनपा। सैनिक और श्रमिक एक
साथ आ गए। उसकी परिणति फरवरी क्रांति के रूप में हुयी। फरवरी क्रांति को चर्च के
लीडरों ने नेतृत्व किया था। बाद में उसके लोकप्रिय नेता एलेक्जेंडर
करेलिन बने थे।
अप्रैल में वहां लेलिन
को पहुंचाया गया। लेनिन ने वहां की जो अंतरिम व्यवस्था थी, उसे छीनी थी। अंतरिम व्यवस्था
इसलिए थी कि वहां पर चुनाव कराया जाए। बाद में जब चुनाव भी हुए थे, तो उसमें बोलशेविक (लेलिन की
पार्टी) की बुरी तरह से हार हुई थी। जो एसआरएस(सोसलिस्ट) पार्टी थी, उसको 299 सीटें मिली थी। बोलशेविक को 168 सीटें मिली थी। मगर सैनिकों की
सहायता से लेनिन ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। इस तरह लेनिन रूस के सत्ता के शिखर पर जा बैठे।
और इस के साथ ही दुनियां में पहली कॉम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ।
इसी प्रकार की सत्ता
विश्व के अन्य देशों में स्थापित करने के लिए सोवियत संघ ने कोमिनटर्न की स्थापना की। यह सब जानते हुए भी पंडित जी ने कामिनटर्न ज्वायन किया।
जवाहर लाल नेहरू और कोमिनटर्न
जवाहर लाल नेहरू उन
दिनों अपनी पत्नी के इलाज के लिए स्विटजरलैंड गये थे। फरवरी १९२७ में ब्रेसेल्स
में कोमिनटर्न का सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में कई मानद (ओनरेरी) अध्यक्ष बनाए
गए। उसमें जवाहर लाल नेहरू भी एक थे, जिन्हें कोमिनटर्न
का मानद (ओनरेरी) अध्यक्ष बनाया गया। इससे नेहरू जी इतने गदगद हो गए कि ताजिंदगी, जब तक (1964 तक) वह जीवित रहे, तब तक लगातार जो भी
निर्नय लिया, जो भी उन्होंने काम किया, वह सोवियत संघ की
हिमायत में किया, सोवियत संघ के
प्रभाव में किया, सोवियत संघ के
निर्देश पर किया। सोवियत संघ के बाद यदि किसी के साथ उन्होंने सहयोग किया तो वह था ब्रिटेन। नेहरू जी ने तब
ब्रिटेन का साथ दिया जब दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत संघ और ब्रिटेन एक पाले में आ गये।
तब उन्होंने ब्रिटेन के साथ पूरा सहयोग करना आरंभ कर दिया। वहां से लौटने के बाद
वे सशस्त्र संघर्ष की बातें करने लगे थे।
सन १९२७ में नेहरू की 3 दिन की मौस्को यात्रा
सन १९२७ में उनको मौस्को
बुलाया गया। 3 दिन में सोवियत संघ
ने उनका ऐसा आवभगत किया कि उनके दिमाग का सार परचून ही उतार दिया। आप सोच
सकते हैं कि पंडित नेहरू कितने कम अक्ल थे, कैसे स्टूपिड थे कि
उनका ब्रेनवाश करने में सोवियत संघ को बस तीन दिन लगे। ज्ञातब्य है कि नेहरू पढ़ाई
में अच्छे नहीं थे। वे प्राय: थर्ड क्लास से पास होते थे।
कॉम्युनिस्म सत्ता हासिल करने का एक
टूलकिट
कौम्यूनिज्म एक
ऐसी राजनैतिक व्यवस्था है जो विचारपूर्वक, जनमत के सहयोग से, कहीं लागू नहीं हो
सकता। और लागू हो जाय तो टिक नहीं सकता। जिस किसी भी देश में कौम्यूनिस्ट सरकारें बनीं वह टिक नहीं
पायीं। पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, युगोस्लाबिया, चेकोस्लाबाकिया, बुलगारिया, हंगरी, स्टोनियां, लाटिविया, लिथुआनियां, बेलारूस, मालदोवा, कजाकिस्तान, किरगिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, जॉर्जिया, अरमेनिया, अजरबाइजान, क्यूबा, सारे के सारे देश
कभी कौम्युनिस्ट देश थे। आज क्यों नहीं हैं।
इसके अलावा अब तक इन
देशों में होने वाली खुनी क्रांतियों में करोड़ो लोग मारे जा चुके हैं। मगर कौम्यूनिज्म
सफल नहीं हुआ। कहने के लिए रूस और चीन में कौम्यूनिज्म बचे हुए हैं। सच तो यह है रूस का
आज सबसे ताकतबर और अमीर आदमी पुटिन है। चीन का आज सबसे ताकतबर और अमीर आदमी सी जिन
पिंग सिंह
हैं।
सोवियत संघ में सत्ता संघर्ष
30 दिसंबर 1922 को
सोवियत संघ की कांग्रेस द्वारा व्लादिमीर लेनिन को काउंसिल ऑफ पीपुल्स कमिसर्स ऑफ द सोवियत यूनियन (सोवरकोम) का अध्यक्ष
चुना गया था। वह एक डिक्टेटर था ।
जोसेफ स्टालिन ने अपने सभी राजनीतिक विरोधियों को हराकर यूएसएसआर का तानाशाह बन गया।
पार्टी के महासचिव का पद, जो स्टालिन के पास
था, सोवियत पदानुक्रम
में सबसे महत्वपूर्ण पद बन गया। मार्च 1953 में स्टालिन की मृत्यु हो गई। और उनकी मृत्यु ने एक शक्ति संघर्ष को
जन्म दिया जिसमें निकिता ख्रुश्चेव विजयी हुए। जैसे-जैसे ख्रुश्चेव
बड़े होते गए, उनका व्यवहार
अनिश्चित और बदतर होता गया।
वे आमतौर पर पोलित
ब्यूरो के साथ चर्चा या पुष्टि किए बिना निर्णय लेते थे। वह भी एक डिक्टेटर
था । ख्रुश्चेव के करीबी साथी लियोनिद ब्रेझनेव ने उन्हें सत्ता से हटाया और वे सचिव चुने गये।
वह भी एक डिक्टेटर था। १९६७ में कोसीजिन सोवियत संघ के नेता
बने। उसने भी देश की सारी शक्ति अपने हाथ में रखी। 1985
को मिखाइल गोर्बाचेव को
पोलित ब्यूरो द्वारा सामान्य सचिवालय के लिए चुना गया था
गोर्बाचेव ने
सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया, कि समाजवादी व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक देशों की तुलना में सोवियत
संघ के आर्थिक विकास की दर बहुत धीमी रही है। यह लोगों
के जीवन स्तर को बेहतर नहीं कर पाया। उसने मौलिक सुधारों की एक श्रृंखला
शुरू की। 1986 से 1988 तक, उन्होंने केंद्रीय
नियोजन और नियंत्रण को समाप्त कर दिया। राज्य के उद्यमों को
अपने स्वयं के आउटपुट सेट करने की अनुमति दी। व्यवसायों में निजी
निवेश को सक्षम किया, जिन्हें पहले निजी
स्वामित्व की अनुमति नहीं थी। विदेशी निवेश की अनुमति दी गई। इन जुड़वां नीतियों
को क्रमशः पेरेस्त्रोइका अर्थात "पुनर्निर्माण" और ग्लासनोस्ट
अर्थात "खुलापन" के रूप में जाना जाता था। कुल मिलाकर यू एस एस आर
को अंतत: समाजवाद से यू टर्न लेना पड़ा।
कहने के लिए कॉम्युनिस्म
एक उदार राजनैतिक व्यवस्था है। ये कौम्युनिस्ट कहने को समानता की बात करते
हैं। ये ऊंची नैतिकता की बात करते हैं। वे कहते हैं कि संसाधनों का समान बटवारा
होना चाहिए। शोषण विहीन समाज बनना चाहिए। विकास में सबों को हिस्सा मिलना चाहिए।
जो जितना योग्य है उसे राष्ट्र को उतना सहयोग करना चाहिए और जिसको जितनी जरूरत
है उसे उतना मिलना चाहिए। यह सब कहने की बात है। मगर असल में ऐसा नहीं है। वास्तव
में कॉम्युनिस्म सत्ता हासिल करने
का एक टूलकिट है। इसी के लिए वे समाज को दो भागों में बांटते हैं और उसमें संघर्ष
पैदा करते हैं। वास्तव में उन्हें किसी समता मूलक समाज से कोई लेना देना नहीं
है। पंडित जी भी इसी तरह के कॉम्युनिस्ट थे। वे बात समाजवाद की करते थे और स्वयं
ऐयासी भरा जीवन जीते थे। पेरिस से कपड़ा धुलवाते थे। शराब, सिगरेट औरतबाजी में उनकी जिंदगी गुजरी।
अंत में एड्स की बीमारी से मरे। बस समानता की बात करते रहे। पंडित जी भी सत्ता की
सारी शक्तियों को अपने हाथ में रखा। अपने विरोधियों को खत्म करने का भरसक प्रयास
किया।
पंडित नेहरू कहने को समाजवादी थे
पंडित नेहरू कहने को समाजवादी थे
मगर वे वास्तव में निहयत व्यक्तिवादी आदमी थे। उन्होंने सत्ता पर डिक्टेटर की
पकड़ बनायी और मनमाना करते रहे। एक के बाद एक बेवकूफियां करते रहे।
कौम्यूनिज्म के विचारधारा से जवानी में
लोग प्राय: प्रभावित हो जाते हैं। मगर बाद में उन्हें इस विचारधारा की असलियत
मालूम पड़ती है, तो वे उसे छोड़ देते है, रिजेक्ट कर देते हैं। मगर पंडित जी पूरी
जिंदगी उसी में पड़े रहे। उस भ्रमजाल से बाहर नहीं निकल सके।
1929 में नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बने
1928 में उनके पिताजी मोतीलाल नेहरू कांग्रेस
के अध्यक्ष थे। उन्होंने जाते-जाते 1929 में अपने बेटे जवाहर लाल को अध्यक्ष बनवा
दिया। पंडित जी एक सभ्रांत परिवार से आते थे। उनके पिता मोती लाल नेहरू अपने जमाने
के सबसे मंहगे बैरिस्टर थे। उनके दादा गयासुद्दीन गाजी मुगल बादशाह
बहादुरशाह जफर के जमाने में दिल्ली के कोतबाल थे। बाद में गयासुद्दीन ने अपना नाम
बदल कर गंगाधर नेहरू रख लिया। इसलिए पंडित जी अधिनायकवादी मानसिकता से ग्रस्त थे।
उनका एक एलीट बैकग्राउंड था, वही एटीच्यूड था। वे एक अहंकारी आदमी
थे। पार्टी के अंदर उन्हें कम ही लोग पसंद करते थे। मगर वे महात्मा गांधी के
बेहद प्रिय थे।
उधर रूस ने नेहरू जी को एक अंतर्राष्ट्रीय
नेता बना दिया था। इसके अलावा कांग्रेस में अन्य नेता गण प्राय: मध्यम परिवारों
से आते थे। उधर पंडित जी उस जमाने के सबसे मशहूर बैरिस्टर मोती लाल नेहरू के बेटे
थे। उन्हें इन सब बातों के कारण घमंड भी बहुत था। पंडित जी कांग्रेस के तीन बार
अध्यक्ष बने, १९२९ में, १९३६ में और १९४६ में। तीनों बार उनके
पास अध्यक्ष बनने के लायक किसी प्रकार का बहुमत नहीं था।
कांग्रेस के अंदर सोवियत ब्लॉक
नेहरू जब 1929 कांग्रेस पेसिडेंट बने तो उसके बाद वे
सुबह शाम के सोवियत संघ के पक्ष में राग अलापते रहे। वे
साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष करने की बात करते रहे। कांग्रेस के भीतर उन्होंने
बाकायदा सोवियत ब्लॉक बनाया। सोवियत ब्लॉक में इस्लामिस्टों की प्रमुख भूमिका
थी। उन्होंने कांग्रेस में फॉरन पॉलिसी ब्लॉक बनाया। उसमें भी प्रमुख दो लोग इस्लामिस्ट
थे।
मुस्लिम लीग को एक तरह से मिलिटेंसी में
धकेला
1936 में जब वे दोबारा प्रेसिडेंट बने तो उनके
नेतृत्व में देश भर के ११ प्रोविंसेज में चुनाव लड़ा गया। 1936 में किसी को यह अनुमान नहीं था कि
कांग्रेस की कितनी सीटें आएगी। पंडित जी ने जिन्ना के साथ एक अघोषित समझौता किया
था कि जब सरकार बनेगी तो यह सम्मिलित सरकार बनेगी। युनाइटेड प्रोविंस (आज का यूपी)
सबसे बड़ी प्रोविंस थी।
५८२ सीटों पर चुनाव हुए थे। मुस्लिम लीग
को मात्र १०८ सीटें मिली थी। ११ में से ७ प्रोविंसों की कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकारें आ गयीं। पंजाब में युनियनिस्ट पार्टी के साथ कांग्रेस की संयुक्त सरकार बनी। इससे नेहरू जी को इतना घमंड आ गया कि
उन्होंने जिन्ना से बात करने से मना कर दिया।
जिन्ना की पार्टी की हालत बहुत बुरी हुई
थी। वे कांग्रेस की तरफ देख रहे थे कि वह अपने अपने वादे पर कायम रहेंगे और
सरकारों में हमे भी शामिल करेंगे। मगर पंडित जी अपने वादे पर कायम नहीं रहे। उन्होंने
मुस्लिम लीग को सरकार में शामिल नहीं किया। तो उसके बाद फिर जिन्ना ने इस्लाम
इस्लाम, इस्लाम का नारा देकर
अपने संगठन को मजबूत करना शुरू कर दिया। इस तरह उन्होंने मुस्लिम लीग को एक तरह से मिलिटेंसी में
धकेला। जिसका नतीजा विभाजन में तब्दील हुआ।
१९३९ में विश्व युद्ध २ आरंभ
१९३९ में त्रिपुरी में जो सम्मेलन हुआ
उसमें सुभाष चंद्र बोस गांधी जी के मर्जी के विरुद्ध चुनाव लड़े और जीते थे । वे पट्टाभी सितारम्मैया को २०० से अघिक मतों से हरा
कर प्रेसिडेंट बने थे। मगर गांधी जी ने इसके बाद
घोषणा की कि पट्टाभी सितारम्मैया की हार मेरी हार है। पार्टी में गांधी जी सबसे
कद्दावर नेता थे। उसके बाद लोग सुभाष चंद्र बोस से कटने लगे। सुभाष बोस कार्य समीति भी नहीं बना पाए। जब उन्होंने देखा कि मेरा काम करना संभव नहीं हो पा रहा
है तो हारकर सुभाष बोस ने अध्यक्ष पद से रिजायन कर दिया। राजेंद्र प्रसाद को
अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया। फिर सुभाष बोस ने कांग्रेस के भीतर ही अलग ब्लॉक
बनाया। नाम था फॅारवार्ड व्लाक। उस कारण सुभाष जी पर आक्रमण हाने लगे।
चलती सरकारें छोड़कर कांग्रेस बाहर आ गयी
विश्व युद्ध २ आरंभ होने के समय सुभाष
चंद्र बोस ने कहा था कि कि भैया या तो आप तुरंत संघर्ष आरंभ करो। इससे बढि़या समय नहीं आएगा। वरना इसी में बने रहो। मगर तब इन लोगों ने
उनकी बात नहीं सुनी। कुछ समय बाद नेहरू जापान यात्रा से लौटे तो उनको कोमिनटर्न का
निर्देश मिला कि अंग्रेजों का असहयोग करो। महात्मा गांधी ढुलमुल चलते रहे। नेहरू
के दवाव में चलती सरकारें छोड़कर कांग्रस बाहर आ गयी। जहां काग्रेस की अच्छी भली
सरकारें चल रही थीं, वहां इस्लामिस्ट
सरकारें बन गयीं। जैसे सूबा सरहद में, नॉर्थ वेस्ट
फ्रोंटियर प्रोविंस में, और आसाम में। आसाम में
सादुल्ला ने सरकार बनायी और उसने मुस्लिम विस्थापितों को बसाने की नीति अपनाई।
जिसके दूरगामी परिणाम आज भी हम झेल रहे हैं।
तब जो महानतम मूर्खता हो सकती थी वह यह
कि नेहरू जी चलती सरकार छोड़ कर आ गए। जहां अच्छी
भली कांग्रेस की सरकारें चल रही थीं वहां इस्लामी
सरकारें बन गयीं।
इससे पूर्व मुस्लिम लीग के लिए स्पेस
समाप्त हो चुकी थी। मुस्लिम लीग के नेता मुस्लिम लीग छोड़ छोड़कर कांग्रेस में आ
रहे थे। मगर कांग्रेस के सरकार से बाहर आने के बाद मामला उल्टा होना शुरू हो गया।
मुस्लिम लीग व्रिटेन सरकार की गोद में जाकर बैठ गयी। उन्होंने आर्मी में
मुसलमानों की बड़े पैमाने पर भर्तियां करायी।
व्रिटिश सेना में भर्ती
नेहरू जी कहने लगे कि हम किसी तरह का
ब्रिटिस को सहयोग नहीं करेंगे। नेहरू जी ने ब्रिटिश सेना में हिंदुओं के भर्ती को
मना किया। मगर सावरकर ने तार लिया और उन्होंने हिंदु लोगों को व्रिटिश सेना में
भर्ती होने का आहवान किया। उन्होंने नारा दिया कि हिंदुओं को मिलिटराइज्ड होना चाहिए
और हिंदुओं को भी आर्मी में जाना चाहिए। मुंबई
प्रेसिडेंसी (महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक) से बड़ी
संख्या में लोग भर्ती हुए। तब जाके १९४६ में यह स्थिति थी कि फिर भी ब्रिटिश सेना
में ३४ प्रतिशत मुसलमान थे।
डा. अम्बेदकर ने
अपनी किताब ‘पाकिस्तान एंड पार्टिशन
ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि इस वजह से भी विभाजन अवश्यंभावी हो गया। यदि यह
मूर्खता नहीं की होती विभाजन अवश्यंभावी नहीं होता। और जिस प्रकार से 1905 का जो बंग भंग आंदोलन सफल हुआ था, अनुशीलन समिति वगैरह के क्रांतिकारियों
ने मूवमेंट चलाकर और उस को सफल बनाया था। उसी प्रकार यह भी सफल होता। और किसी भी प्रकार देश का विभाजन नहीं
होता। वे जितने भी थे, देश तोडने वाले, उन्हें देश छोड़कर
भगना पड़ता। यदि कोई छोटा मोटा टुकड़ा वे पकड़ भी
लेते तो वहां रहने वाला एक भी मुसलमान बच नहीं
पाता। गांधी जी ने भी एक तरह से इसमें नेहरू का समर्थन ही किया। यह जो भयंकर मूर्खता थी उसका परिणाम यह हुआ
कि विभाजन अवश्यंभावी हो गया। यह मूर्खता पूरी की पूरी तरह से नेहरू जी
के खाते में जाती है।
डू और डाइ का नारा
१९४२ में ऐसा हुआ कि
हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया कर दिया। तो कोमिंगटर्न का कोम्यूनिस्टों को निर्देश आया कि अब आपको ब्रिटेन का समर्थन करना है।
नेहरू साहब के लिए भी यही निर्देश था।
सुभाष जी बाहर से
आज़ादी के लिए लड़ रहे थे। इससे चर्चिल के ऊपर यह दबाव आया। उसने स्टैफर्ड क्रिप्स
कमीशन को भारत भेजा। नेहरू जी अंग्रेजों के समर्थन में ऐसे लग गये कि क्रिप्स
कामीशन के अनुशंसा को पास करवाया। इससे जितने भी प्रोविंसेज थे उन्हें सिसीड करने
अर्थात अलग हो जाने का अधिकार मिलता था। बाद में इसका काफी विरोध हुआ। चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी ने CWC की अगली मिटिंग में इसके विरुद्ध एक प्रस्ताव लाकर इस रिजोल्यूशन को
खारिज किया। इससे गांधी जी और नेहरू जी की साख बिगड़ी। साख बचाने के लिए गांधी जी
ने हड़बड़ी में डू और डाइ का नारा दिया, अर्थात करो या मरो। यह नारा वेअसर
सावित हुआ। यह आंदोलन चल नहीं पाया।
सुभाष बोस का वामपंथ राष्ट्रवादी था और
नेहरु जी का सोवियत वादी
इन्हीं दिनों सुभाष जी ऐक्जिल पावर
(जर्मनी, जापान और इटली) के साथ जाकर मिल गये। वे
भी वामपंथी थे लेकिन उनका जो वामपंथी विचार था वह पूरी तरह से राष्ट्रवादी था।
नेहरु जी का जो वामपंथ था वह पूरी तरह से सोवियत वादी था। यह एक बहुत
बड़ा अंतर था सुभाष चंद्र बोस और नेहरू जी के वामपंथी विचारधारा में।
गांधी जी को मजबूरी में जाकर करो या मरो
का एक आंदोलन करना पड़ा। और उसके मूल में यही था कि गांधी और नेहरू का जनमानस में
इतना विरोध बढ़ गया था उनके लिए अंग्रेजो के विरुद्ध किसी नए
आंदोलन की शुरूआत करना आवश्यक हो गया।
लोग देख रहे थे कि एक तरफ सुभाष बाबू देश को आजाद कराने के लिए देश के
बाहर जाकर संभावना तलाश रहे है, दूसरी तरफ गांधी नेहरू अंग्रेजों के साथ खड़े हैं, इस समय शांति का मुजाहिरा कर रहे हैं। लोगों को लग रहा था कि सुभाष जी देश को
स्वतंत्र करा लेंगे।
सन १९४५- ४६ में सेंट्रल एसेम्बली के
चुनाव हुए । सन् ४५ में विश्व युद समाप्त हो चुका।
सुभाष बाबू दृष्टि पटल गायब हो चुके थे।
सेंट्रल असेंबली के चुनाव
सेंट्रल असेंबली के चुनाव हुए। और तब
सेंट्रल असेंबली के चुनावों पर मुस्लिम लीग ने पूरी तरह से
उसको पाकिस्तान के मुद्दे पर एक प्रकार प्रकार से मत संग्रह बना दिया। लेकिन फिर
भी हमारे जो भाई लोग थे, गांधी, नेहरू, आदि तमाम कांग्रेसी जन अपने आप को
सेक्यूलर साबित करने में लगे रहे। उसका नतीजा यह हुआ कि मुस्लिम लीग एसेम्बली के
चुनाव में ३० के ३० सीटें जीत गयी। जिन्ना भी जीत गया। उसके सब उम्मीदवार जीत गए।
पाकिस्तान के लिए मार्ग प्रशस्त
उसके बाद 1946 में प्रॉविंसियल एसेम्बली अर्थात विधान
परिषदों के सदस्यों के लिए जनवरी 1946 में चुनाव हुए। जैसे-जैसे छोटे राजनीतिक दलों
का सफाया हुआ, राजनीतिक परिदृश्य पर भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस और मुस्लिम लीग तक सीमित हो गये। वे पहले से कहीं अधिक विरोधी हो गए।
कांग्रेस ने 1937 के चुनावों की पुनरावृत्ति की। प्रांतों में कांग्रेस ने सामान्य गैर-मुस्लिम सीटों में 90
प्रतिशत जीत हासिल की। मुस्लिम लीग ने मुस्लिम रिजर्व सीटों के अधिकांश (87%)
पर जीत हासिल की। इस चुनाव ने पाकिस्तान के लिए मार्ग
प्रशस्त किया।
चुनाव में कांग्रस की वैसे तो भारी जीत हुई। सिंध में और बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकारें बन
गयीं। पंजाब में कांग्रस की मदद से युनियनिस्टों की सरकार बनी। लेकिन उसको मुस्लिम
लीग ने चलने नहीं दिया। क्योंकि तब तक मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड का गठन कर चुकी
थी। यह मुस्लिम लीग एक आर्म्ड विंग थी। वे
जगह-जगह दंगे करवा रहे थे। दंगे मुस्लिम रणनीति के सदैब से अंग रहे हैं। इन दंगों
की प्रक्रिया तब से शुरू हुई जब से महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया था।
46 में फिर से नेहरू
जबरदस्ती कांग्रेस अध्यक्ष बने
मौलाना आजाद 1940
में रामगढ़ अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध, भारत छोड़ो आंदोलन और अधिकांश कांग्रेस नेताओं
के जेलों में रहने जैसे विभिन्न कारणों से, आजाद अप्रैल 1946 तक
कांग्रेस अध्यक्ष बने रहे। जैसे-जैसे विश्व युद्ध समाप्त हो रहा था, यह स्पष्ट होता जा रहा था कि भारत की
स्वतंत्रता बहुत दूर नहीं है। यह भी बहुत स्पष्ट था कि कांग्रेस अध्यक्ष को केंद्र
में अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाएगा। 1946 के चुनावों में केंद्रीय
विधानसभा में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी।
१९४६ में नेशनल कांग्रेस कमिटी के चुनाव हए। इसमें
तीन कैंडिडेटों ने भाग लिया, बल्लभ भाइ पटेल, पंडित नेहरू और आचार्य
कृपलानी। चुनाव में तो यह यह स्थिति थी कि नेहरू
जी के पास नोमिनेशन के लिए भी कोई कैंडिडेट नहीं था। अंत में महात्मा गांधी ने
उनका नौमिनेशन कांग्रेस वर्किंग कमीटी से करवाया। परंपरा यह थी कि नौमिनेशन
पीसीसी(प्रोविंसियल कांग्रेस कमीटी) के कोई प्रेसिडेंट किया करते थे। उस समय जो १५
पीसीसी के प्रेसिडेंट थे। उसमें से एक ने भी उनका नौमिनेशन नहीं किया। पंडित जी की
पार्टी में यह स्थिति थी। नेहरू को गांधी जी, मौलाना आजाद जैसे चंद लोग ही पसंद करते
थे।
20 अप्रैल 1946 को, गांधीजी ने सार्वजनिक रूप से आहवान किया
कि वे नेहरू के पक्ष में मतदान करें। जवाहरलाल नेहरू के लिए गांधीजी के खुले
समर्थन के बावजूद, कांग्रेस पार्टी
सरदार वल्लभभाई पटेल को अध्यक्ष और परिणामस्वरूप भारत के पहले प्रधान मंत्री के
रूप में चाहती थी। पटेल को एक महान कार्यकारी, आयोजक और नेता माना
जाता था, जिनके पैर जमीन पर
मजबूती से टिके थे। नेहरू जी का कोई जनाधार नहीं था।
उस समय केवल प्रदेश
कांग्रेस कमेटी ही कांग्रेस अध्यक्ष को मनोनीत कर सकती थी और चुन सकती थी। यही
परंपरा थी। 29 अप्रैल, 1946 कांग्रेस
अध्यक्ष पद के लिए नामांकन की आखिरी तारीख थी। किसी भी प्रदेश
कांग्रेस कमेटी ने, जवाहरलाल नेहरू को
नामित नहीं किया।
नेहरू का नाम कुछ CWC (Congress Working Committee) के सदस्यों द्वारा प्रस्तावित किया गया था, जिनके पास ऐसा करने का कोई
अधिकार नहीं था। इसके बाद सरदार पटेल को जवाहरलाल के पक्ष में वापस लेने के लिए
मनाने की कोशिशें शुरू हुई।
गांधीजी ने अपनी
पसंद के बारे में सबों को चुनाव पूर्व ही बता दिया था कि वे नेहरू को जिताए। इसके
बावजूद, 15 में से 12 राज्य
समितियों ने पटेल को पार्टी अध्यक्ष के लिए वोट किया। दो वोट आचार्य कृपलानी को मिला। नेहरू जी तीसरे नंबर पर आए। उन्हें एक भी बोट नहीं पड़ा। नेहरू हार गये
मगर गांधी जी ने पटेल पर दबाव डाला कि वे मैदान से बाहर आ जांए। अतत: चुनाव में
विजयी होने के बाद भी सरदार पटेल ने अपनी दावेदारी छोड़ दी। गांधीजी ने पटेल को दावेदारी वापस लेने के लिए कहा तो राजेंद्र प्रसाद ने
अफसोस जताया था। माइकल ब्रेचर लिखते हैं: पटेल प्रांतीय कांग्रेस समितियों की पहली
पसंद थे। गांधी के हस्तक्षेप के कारण नेहरू का चुनाव हुआ था। पटेल को पद छोड़ने के
लिए राजी किया गया….
यदि गांधी ने
हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो पटेल 1946-7 में
भारत के पहले प्रधान मंत्री होते और देश को आज यह दिन नहीं देखने पड़ते जो नेहरू
जी की बेवकूफियों के कारण देखना पड़ा़ ।
डायरेक्ट एक्शन डेक्लेयर
नेहरू जी को प्रेसिडेंट बना दिया गया और
प्रेसिडेंट बनते ही 10 जुलाई को एक मूर्खता पूण वक्तव्य दिया। जब उनसे पूछा गया कि कंस्टीच्युएंट
एसेम्बली किस तरह फैसले लेगी तो पंडित जी ने कहा कि कंस्टीच्युएंट एसेम्बली जो
भी फैसले लेगी वह बहुमत के हिसाब से लेगी। कंस्टीच्युएंट एसेम्बली में बहुमत तो
कांग्रेस का था।
मौलाना आजाद ने किसी तरह से जिन्ना को
मना लिया था कि वह जो कैबिनेट मिशन का लूज फेडेरेशन का प्रपोजल है, उसको मान जाए। वह मान भी गए। जिन्ना लूज फेडेरेशन के ऊपर अंग्रेजों के प्रसर में, अबुल कलाम आजाद के प्रेसर में मजबूरी में
तैयार हुए थे। नेहरू का वक्तव्य सुनते ही वह भड़क गया। उसको बहाना मिल गया। उसने
डायरेक्ट एक्शन डेक्लेयर कर दिया। उसने जगह जगह दंगे कराए। देश में भयंकर दंगे
हुए। पहले हिंदुओं के जान माल गए। फिर जब हिंदुओं ने बदला लेना शुरू किया तो ये
गांधी नेहरू आदि अनसन पर बैठ गए। इस तरह हर जगह हिंदुओं के संहार में इन लोगों ने
अप्रत्यक्ष मदद की। बंगाल में सोहरावर्दी की सरकार थी। नेहरू जी तब तक अंतरिम प्रधान
मंत्री बन चुके थे। मगर नेहरू जी अंग्रेजों के मारफत वहां कुछ करवा नहीं पाए। फिर
नोवाखाली के दंगे में महात्मा गांधी भी कुछ नहीं करवा सके। उसके नतीजे में जब
बिहार में दंगे शुरू हुए तब नेहरू जी ने कहा कि जहां मुसलमानों के खिलाफ दंगे
होंगे वहां मैं हबाई जहाज से बम गिरा दुंगा।
नेहरू कांग्रेस पेसीडेंट थे । महात्मा
गांधी उनकी बात मानते थे। वे जो चाहते वो करवा सकते थे। मगर नेहरू अंदर से कमजोड़
आदमी थे। उनकी जो कमजोरियां थी, जिन्ना ने उसका पूरा फायदा
उठाया। उसने देख लिया एक बड़ा कमजोर और बड़ा ही अनिर्णय पूर्ण, विवेकहीन, नेता है नेहरू। वह चैलेंज से दुम दबाकर
भागता है। १९४६ में भी वे चैलेंज से दुम दबाकर भागे।
हिंदुओं को मुगालते में रखा गया
इन लोगों ने हिंदुओं को मुगालते में रखा।
उनको अंतिम समय तक यही कहते रहे कि देश का बटवारा नहीं होगा। गांधी जी बोलते रहे कि विभाजन होगा तो मेरी
लाश पर होगा। और
अचानक३ जून १९४७ को पता चलता है कि ब्रिटिश पारलियामेंट में माउंटवेटन प्लान डिक्लियर हो गया़।
मुस्लिम लीग वालों ने भयंकर दंगे शुरू कर दिया। मुसलमानों ने पाकिस्तान से
हिंदुओं और सिक्खों को भगाना शुरू कर दिया। हिंदुओं के साथ विभत्स कांड हुआ।
जिसका वर्णण करना मुशकिल है। यह सब नेहरू की
बेवकूफी के कारण हुआ, जो उस समय अंतरिम प्रधान मंत्री
थे।
नेहरू जी के अदूरदर्शितापूण कारनामों से
सिंध में रेफरेंडम नहीं हो पाया। उन्होंने तय कर लिया कि एन डब्ल्यू एफ पी में, सिलहट में मत संग्रह होगा, मगर सिंध में जहां अच्छी खासी हिंदु
पोपुलेशन था, वहां मत संग्रह नहीं
हो पाया। 40% से ऊपर हिंदू आबादी
होते हुए भी सिंध का विभाजन इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नेहरु जी ने किसी प्रकार का
कोई प्रयत्न नहीं किया।
पार्टिशन को नेहरू ने मिसमैनेज किया
पार्टिशन को नेहरू जी ने बुरी तरह
मिसमैनेज किया। उसको उन्होंने ऐसा बंटाढार किया जिसका इतिहास में कोई मिसाल नहीं
है। गांवों और ब्लॉक कार्यालय में काम करने वाला
एक पटवारी भी इससे बेहतर तरीक़े से बटवारा कर सकता था।
पंडित जी को कोई दूसरा ही भूत सवार था
सेकुलज्म का, धर्मनिरपेक्षता का। इस धर्मनिरपेक्षता के
चक्कर में वे स्वधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म, सब भूल गये। वे इस चक्कर में लग गये कि
लार्ड माउंट बेटन को खुश रखो, उनकी बेग़म को खुश रखो। उनको गवर्नर जेनेरल बनाकर
राज करो। उन्होंने इसकी बिलकुल चिंता नहीं की कि जिन्ना कितने ही हिंदुओं को
पश्चिमी पाकिस्तान में मारता रहे। काश इंडियन इंडिपेंडेस एक्ट में जो लिखा है, अगर ब्रिटेन से और
पाकिस्तान से वे उसी का पालन करा लेते। वो भी उनसे नहीं हुआ। इसके फलस्वरूप इतने
हिंदु मारे गए, इतने विस्थापित हुए, इतनी सारी ज्यादतियां हुईं, जिसका कोई हिसाब नहीं।
भयंकर शर्दियों में इतना जुल्म सहते हुए
लोग पाकिस्तान से भाग कर भारत आए। बिल डयुरंड ने अपनी किताब में
लिखा है कि मुसलमानों ने अपने लगभग ६०० साल की सत्ता में भारत में ८ करोड़ हिंदुओं का कत्ल किया है। जब भारत आज़ाद हुआ था तो उसकी जनसंख्या
३० करोड़ के करीब थी।
मुसलमान के साशनकाल में त्रासदी, आतंक, अत्याचार, बर्बरता, झेलते हुए हिंदुओं ने अपने दिन
निकाले थे। उसी प्रकार की त्रासदी, आतंक, अत्याचार, बर्बरता, झेलते हुए हिंदुओं को जब पाकिस्तान से
भागना पड़ा था। तब यह जिम्मेवारी बनती थी पाकिस्तान की, जिन्ना की, ब्रिटेन की और नेहरू
की कि वे सब की सुरक्षा करते। जो लोग भगाए जा रहे थे, उनके लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। वे उसमें पूरी
तरह असफल रहे। यह एक धोखा था, पूरे देश की जनता के साथ, भारत माता के साथ।
जहां माउंट बेटन को इसकी
सजा मिलनी चाहिए थी, उसके उलट नेहरू जी ने माउंट बेटन और
ब्रिटेन को ऐसे सेट किया कि न सिर्फ नेहरू बल्कि उनकी पूरी वंशावली भारत पर ७० साल तक राज करती रही। आज भी कांग्रेस पार्टी पर
यह परिवार कुंडली मार कर बैठा हुआ है।
जम्मू और कश्मीर का मुद्दा
उसके बाद जब विभाजन का समय आता है, फिर नेहरू जी
मूर्खतापूर्ण कार्यक्रम आरंभ कर देते हैं। कश्मीर का जो ईशू खड़ा हुआ वह सिर्फ
नेहरू जी की वजह से हुआ। अगर पूरी बाजी सरदार पटेल के हाथ में होता तो वे सारा कुछ
करवा लेते। उन्होंने जब ३६० राजे रजवारे को भारत में शामिल होने के लिए राजी कर
लिया तो कश्मीर को भारत में शामिल होने के लिए राजी कराना उनके लिए कौन सी बड़ी
बात थी?
जम्मू और कश्मीर का मामला पंडित जी ने
मिसमैनेज किया। राजा ने समय से विलय नहीं किय उसका मुख्य कारण भी नेहरू ही थे।
राजा तो विलय करना चाहता था। जुलाई में महात्मा गांधी राजा से मिल कर आ गए थे।
गुरु गोलवलकर भी उनसे मिल कर आ गए थे। महाराजा ने उनको सहमति भी दे दी थी।
मगर पंडित जी इस बात पर अड़े थे कि शेख
अब्दुला को सारे अधिकार जाएंगे। वे कश्मीर के प्राइम मिनिस्टर बनेंगे। महाराजा
और शेख अब्दुल्ला में ३६ का आंकड़ा था। शेख ने राजा को पंडित नेहरू
के इशारे पर तंग किया था। पंडित जी ने कांग्रेस की
एक संस्था बना रखी थी, ऑल इंडिया स्टेट कांफ्रेंस। शेख अब्दुलला को इसका चीफ बना रखा था।
हर प्रिंसली स्टेट में कांग्रेस की ऐसी एक संस्था होती थी। शेख अब्दुलला एक
मायावी आदमी था। वह जब कश्मीर घाटी में होता था तो वह पूरी तरह सांप्रदायिक होता
था, वह जब जम्मू में होता था तो वह तुरंत कोम्यूनिस्ट हो
जाता था। शेख डोगरा और पंडितों की जमीन पर कब्जा करने की प्लानिंग करता था। जब
जमीनदारी प्रथा खत्म हुई तो जम्मू कश्मीर के किसी जमीनदार को मुआवजा नहीं दिया
गया। क्योंकि शेख अब्दुल्ला पूरी तरह हिंदु विरोधी था। जैसे तैसे जब जम्मू कश्मीर
का विलय हो गया तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया।
गहमेंट ऑफ इंडिया एक्ट १९३५ ही उस समय
भारत का संविधान था। इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन उसी एक्ट का एक अंग था। यह सभी
पिंसली स्टेटों पर लागू किया गया था। पहले एक्सेसन और बाद में सभी प्रिंसली स्टेट
से मरजर करवाया गया। बांकी सभी स्टेट्स ने तो मरजर किया। मगर यहां तो महराजा से
पूछा तक नहीं गया। उनको बंबई भेज दिया गया। शेख अब्दुलला को सर्वे सर्वा बना दिया
गया। शेख प्राइम मिनिस्टर बन गए। उनकी खुशी के लिए नेहरू जी ने महाराजा को जम्मू
कश्मीर से निष्कासित करके मुंबई भेज दिया गया। उनके पुत्र करण सिंह को उनका
रिजेंट (प्रतिनिधि) बनाया गया। पूरी ताकत नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने अपने हाथ
में ले ली।
जब पाकिस्तान का आक्रमण हो रहा था तो
भारतीय सेना को भी मैदान में उतरना पड़ा। जब भारतीय सेना ने उड़ी तक पाकिस्तानी
सेना को खदेड़ दिया तो नेहरू ने कहा कि अब सेना को सारा कमांड शेख अब्दुला से
लेने होंगे।
शेख अब्दुल्ला की मुजफ्फराबाद, मीरपुर, कोटली, आदि झेलम के किनारे के इलाकों में रूचि
नहीं थी। वे लोग मीरपूरी मुसलमान थे। वे कश्मीरी मुसलमान नहीं थे। वे शेख अबदुल्ला
को पसंद नहीं करते थे। १५ नवंबर तक मोजूदा भारतीय कश्मीर को भारतीय फौज खाली करा
चुके थे। अब मुजफ्फराबाद, मीरपुर, कोटली, आदि को बचाया जा सकता था। शेख ने ऐसा
नहीं होने दिया। २५ नवंबर को पाकिस्तानी सेना ने मीरपुर कोटली पर कब्जा कर
लिया। वहां उन्होंने हिंदुओं का कत्लेआम किया। औरतों को बंधक बनाया। उनको
भोगदासी बनाया। उनको पंजाब ले जाकर बाजारों में वेश्यावृत्ति के लिए बेचा। इन सब
के लिए एक मात्र ब्यक्ति जो जिम्मेवार है वह है पंडित जवाहर लाल नेहरू।
नेहरू जी का एकतरफा फैसला यूएनओ में जाने
का
उसके बाद नेहरू जी ने एकतरफा फैसला कर
लिया कि हमे अब इस मसले को लेकर यूएनओ में जाना है। जबकि भारतीय सेना जीत रही थी।
वह बचा हुआ कश्मीर भी जीत सकती थी। मगर नेहरू ने
ऐसा नहीं होने दिया। कदम कदम पर सेना के सामने शेख अबदुल्ला की अरचने आरे आती थी, कदम कदम पर नेहरू जी की अरचने आरे आती
थी। कदम कदम पर अनिर्णय की स्थिति आरे आती थी। जम्मू कश्मीर पूरी तरह से लिबरेट
हो सकता था। पंडित जी ने यह होने नहीं दिया। अपनी अदूरदर्शिता की वजह से गिलगित और
बाल्तिस्तान को हाथ से निकलने दिया। वहां ब्रिगेडियर धनसारा सिंह जो गवर्नर थे, चिललाते रहे, कि यहां कुछ करो नहीं तो बलबा हो जाएगा।
मगर नेहरू ने कुछ नहीं किया। हप्ते भर बाद वहां का
अंग्रेज कमांडर विलियम ब्राउन ने सैनिक बिद्रोह करके खुद का कब्जा कर लिया। और
तीन हप्ते बाद उसने उसे पाकिस्तान को हैंड ओवर कर दिया। नेहरू की इनकम्पीटेंस
की, उसकी बेवकूफी की आप
कल्पना करिए। यह सब नेहरू देखते रहे। कुछ नहीं किया। इतना ही नहीं उसके बाद वहां
धारा ३७० लागू किया।
हैदरावाद पाकिस्तान में मिलने की तैयारी
में था
हैदरावाद पाकिस्तान
से मिलने की तैयारी में था। वह पाकिस्तान को पैसे से सपोर्ट कर रहा था। उसने
रजाकारों की सेना बनायी थी। उसने वहां हिंदुओं का कत्लेआम शुरू किया। जबकि
हैदराबादमें ८५ प्रतिशत जनसख्यां हिंदुओं की थी।
कैबिनेट में
हैदराबाद पर हमला का फैसला हो चुका मगर नेहरू जी उसे क्रियन्वयन नहीं होने दे रहे
थे। पंडित जी विदेश गए हुए थे। सरदार पटेल ने उस निर्णय को क्रियान्वयन किया।
उन्होंने हैदराबाद पर हमला किया। निजाम को
धुटने पर ला खड़ा किया।
पूर्वी पाकिस्तान में भी हिंदुओं पर अत्याचार
पूर्वी पाकिस्तान
में भी हिंदुओं पर अत्याचार होना आरंभ हो गया। उस समय वहां करीब ३० प्रतिशत हिंदु
हुआ करते थे। उसमें अधिकाधिक दलित थे जैसे नामशुद्र, राजवंशी, आदि। ये सारी जातियां गांवों में रहती
थी। खेती बारी करती थी। इनके पास जोत की काफी जमीनें हुआ करती थी। उन जमीनों पर
कबजे शुरू हो गए। उनके साथ वहीं कहानी शुरू हो गयी जो पश्चिमी पाकिस्तान में हो चुकी थी। वही लूट, हत्या, बलात्कार।
कुल मिलाकर नेहरू जी
राजनैतिक दृष्टि से अंधे आदमी थे। गांधी जी ने उन्हें तमाम अयोग्यता के बावजूद हमारे सर पर बिठा दिया। उनके लिए
प्रधान मंत्री का राह प्रशस्त किया। बे अच्छी तरह जानते थे कि नेहरू किस तरह
कौम्यूनिस्ट विचारधारा में फले फूले हैं। नेहरू ने राष्ट्रीय हितों की अनदेखी
की। अपनी वाहवाही लूटने के लिए ऊटपटांग समझौते करते रहे। अपने खानदान के लोगों को
आगे बढ़ाते रहे। देश के साथ नेहरू ने विश्वासधात किया।
लियाकत नेहरू पैक्ट
नेहरू ने पाकिस्तानी
राष्ट्रपति लियाकत से पैक्ट किया। इससे पूर्व तक
मुसलमान पाकिस्तान जाकर नागरिकता प्राप्त कर सकता था और हिंदु भारत आकर नागरिकता प्राप्त कर सकता था। लियाकत अली ने पाकिस्तान में मुसलमानों का
आना बंद कर दिया।
कलात के भारत में विलय के प्रस्ताव को
अस्वीकार करना
1947 में, बलूचिस्तान की एक
रियासत कलात के खान ने पाकिस्तान के बजाय भारत में शामिल होने का विकल्प चुना।
उन्होंने नेहरू को हस्ताक्षरित परिग्रहण पत्र भेजे जिससे कि कलात को आधिकारिक तौर
पर भारत संघ का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव था। नेहरू ने कलात के परिग्रहण को अस्वीकार कर दिया।
उन्होंने कहा कि बलूचिस्तान हमसे बहुत दूर है। इसके बाद पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर आक्रमण किया
और उसे कब्जा कर लिया। नेहरू यह सब देखते रहे।
खान अब्दुल गफ्फार खान जो महात्मा गांधी के साथ आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, उन्हें यह उम्मीद नहीं थी। मगर यह हुआ।
हैदराबाद को आजाद कराने की पटेल की योजना
में बाधा डालना
भारत की स्वतंत्रता
के बाद, हैदराबाद के निज़ाम
ने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया, और राज्य के हिंदू
प्रजा पर दो लाख से अधिक "रजाकारों" की एक निजी सेना को छोड़ दिया।
अनुमानों के अनुसार, कम से कम तीस से चालीस
हजार लोगों का नरसंहार किया। जवाब में, केंद्रीय गृह मंत्री
सरदार पटेल ने सैन्य बल का उपयोग करके राज्य को मुक्त करने का फैसला किया। पीएम
नेहरू ने इस योजना का विरोध किया और इसे विफल करने की कोशिश की। उन्होंने एक बैठक
में पटेल को "पूर्ण सांप्रदायिकतावादी" कहते हुए उनका अपमान किया। नेहरू
के विरोध के बावजूद पटेल आगे बढ़े और हैदराबाद को आजाद कराने वाले ऑपरेशन पोलो की
शुरुआत की। और निजाम को विलय के लिए मजबूर कर दिया।
मणिपुर की काबो घाटी को बर्मा को उपहार
में देना
ऐतिहासिक रिकॉर्ड के
अनुसार, हरे-भरे, उपजाऊ और संसाधनों से भरपूर काबो घाटी, कम से कम 1450 तक मणिपुर राज्य का हिस्सा रही है। यह 11,000 वर्ग किमी में फैली
हुई है।
भारत की तात्कालिक
अंग्रेजी सरकार द्वारा मणिपुर पर साल 1834 में कब्जा कर लिया। उसके बाद, उन्होंने 1834 में मणिपुर के
महाराजा गंभीर सिंह के परामर्श से यह घाटी को बर्मा को पट्टे पर दे दिया गया। बदले
में, बर्मा ने मणिपुर
राज्य को 500 रुपये मासिक मुआवजे का भुगतान
करना था। इस स्पष्ट शर्त के साथ कि मणिपुर ने किसी भी समय भूमि को पुनः
प्राप्त करने का अधिकार बरकरार रखा।
इस तरह मुआवजे का
भुगतान तब तक किया जाता रहा जब तक कि मणिपुर भारत संघ का हिस्सा नहीं बन गया।
आजादी के बाद इस भूमि को पुनः प्राप्त करने के लिए उसे नेहरू सरकार से बात करनी
थी। आगे क्या करना है यह पूरी तरह भारत सरकार पर निर्भर करता था। यह घाटी सौंदर्य में कश्मीर जैसा है। यह
सामरिक दृष्टि से भारत के लिए काफी महत्वपूण है। मगर नेहरू जी ने 1954 में इसे बर्मा को
उपहार में दे दिया। जैसे इनकी पुस्तैनी संपत्ति हो।
कोको द्वीप समूह को बर्मा को उपहार में
देना
ग्रेट कोको द्वीप और
लिटिल कोको द्वीप अंडमान द्वीपसमूह का सबसे उत्तरी भाग बनाते हैं। पीएम नेहरू ने
भारत की आजादी के बाद इन द्वीपों को बर्मा को उपहार में दिया था। इसके बाद, बर्मा ने उन्हें चीन को सौंप दिया। चीन
ने बंगाल की खाड़ी में भारत की सैन्य और नौसैनिक गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए
इन द्वीपों पर एक व्यापक इलेक्ट्रॉनिक निगरानी स्टेशन स्थापित किया। इससे उसे इसे भारत पर एक महत्वपूर्ण
रणनीतिक लाभ मिलता है। भारत के पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने इसका खुलासा किया था।
सरदार पटेल को सोमनाथ मंदिर
के जीर्णोद्धार करने से रोकना
भारत की आजादी के
बाद, केंद्रीय गृह मंत्री
सरदार वल्लभभाई पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया। यू तो
सोमनाथ पर नादिर शाह के कई हमले हुए मगर आखिरी बार मुगल तानाशाह औरंगजेब ने नष्ट
कर दिया था। पटेल ने इसके पुनर्निर्माण का संकल्प लिया। नेहरू ने इस परियोजना का पूरी ताकत से विरोध किया। इसे "हिंदू पुनरुत्थानवाद"
कहा। नेहरू की विरोध के बावजूद, मजबूत इरादों वाले
पटेल ने इसका पुनरुत्थान किया। जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को मंदिर के उद्घाटन
के लिए आमंत्रित किया गया, तो नेहरू ने उन्हें
इस आयोजन से खुद को अलग करने की "सलाह" दी। उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति
को कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है इसलिए इसके राष्ट्रपति को धार्मिक कामों
में नहीं भाग लेना चाहिए। मगर प्रसाद ने भी नेहरू की सलाह को अनसुना कर दिया। वे
मंदिर के जीर्णोधार की सभा में शामिल हुए।
UNSC में भारत के लिए स्थायी सीट के अमेरिकी
और सोवियत प्रस्तावों को अस्वीकार करना
1950 में, भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट की पेशकश की। पीएम नेहरू ने इस
प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह चीन की कीमत पर आए किसी भी प्रस्ताव
को वे स्वीकार नहीं करेंगे। 1955 में, दूसरी बार अमेरिका ने यूएसएसआर के साथ मिलकर नेहरू
से इस प्रस्ताव को दोहराया। नेहरू ने फिर से
प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। पंडित जी ने इस बात पर जोर दिया
कि भारत के बजाय चीन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। नेहरू ने सुनिश्चित किया कि चीन
को भारत की कीमत पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट मिले। आज, नेहरू की कृपा से, चीन के पास संयुक्त राष्ट्र में वीटो का
अधिकार है और इसका उपयोग कर उसके पास भारत के हितों को बार-बार नुकसान पहुंचाने के
असीमित अवसर हैं।
ओमान के सुल्तान का ग्वादर बंदरगाह का
तोहफा ठुकराना
ओमान के सुल्तान ने
1958 में भारत को ग्वादर बंदरगाह की खरीदने की पेशकश की थी। नेहरू ने प्रस्ताव को
अस्वीकार कर दिया। इसे बाद में पाकिस्तान ने खरीद लिया। यह
रणनीतिक रूप से स्थित बंदरगाह आज भारत के पास होता। यह आज चीन के बड़े पैमाने पर
बेल्ट एंड रोड परियोजना सीपीईसी का प्रमुख हिस्सा है।
नेपाल को फिर से भारत में शामिल होने से
रोकना
1950 के दशक की
शुरुआत में, नेपाल के राजा
त्रिभुवन ने नेपाल को भारत में विलय करने की पेशकश की थी। नेहरू ने भारत के
ऐतिहासिक क्षेत्र नेपाल को फिर से भारत में शामिल करने के ऐतिहासिक अवसर को ठुकरा दिया। उन्होंने नेपाल नरेश को कहा कि इससे भारत और नेपाल
दोनो को नुकसान होगा।
भारत को एशिया की पहली परमाणु शक्ति बनने
में मदद करने के अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी के प्रस्ताव को ठुकराना
चीन परमाणु उपकरण का
परीक्षण करने वाला पहला एशियाई राष्ट्र बना। मगर इससे बहुत पहले, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने
भारत को राजस्थान के रेगिस्तान में परमाणु बम बनाने और विस्फोट करने में मदद करने
की पेशकश की थी। कैनेडी ने प्रधानमंत्री नेहरू को प्रस्ताव देते हुए एक हाथ से
लिखा हुआ नोट भेजा था। कैनेडी ने पत्र में यह जोर देकर कहा था कि "राष्ट्रीय
सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है"। नेहरू ने कैनेडी के प्रस्ताव को
ठुकरा दिया।
यदि नेहरू ने कैनेडी
की सहायता की पेशकश को स्वीकार कर लिया होता, तो भारत चीन से आगे
एशिया की पहली परमाणु शक्ति होता। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करने की हिम्मत
नहीं की होती और न ही पाकिस्तान ने 1965 में हमला किया होता। अगर नेहरू ने कैनेडी
की सहायता की पेशकश को स्वीकार कर लिया होता, तो भारत परमाणु
आपूर्तिकर्ता समूह का संस्थापक सदस्य होता।
इतिहास की सबसे असमान संधि पर हस्ताक्षर
करना
1960 में, पीएम नेहरू ने, दोस्ती और सद्भावना के लिए, अब तक की सबसे असमान, एकतरफा संधियों में से एक- सिंधु जल संधि, पर हस्ताक्षर किए। इसने पाकिस्तान को सिंधु प्रणाली के
माध्यम से बहने वाले पानी के तीन-चौथाई से अधिक का स्वामित्व दिया। इसके मात्र पांच साल बाद भारत पर हमला करके नेहरू के
सद्भावना का बदला लिया।
तिब्बत का त्याग, भारत की जल सुरक्षा और उत्तरी सीमा को
चीन के रहमोकरम पर छोड़ना
जब संकेत मिले कि
माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन तिब्बत पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा है, तो नेहरू ने चीनियों को रोकने के लिए
सैन्य बल का उपयोग करने के विचार करने से इनकार कर दिया। आक्रमण अंततः 1950 में
हुआ। इसने भारत की उत्तरी सीमा को अनिर्धारित और असुरक्षित बना दिया। तिब्बत के विशाल जल संसाधनों को, जिस पर भारत निर्भर करता है, पूरी तरह से चीन के हाथों में दे दिया।
इसके अलावा, नेहरू ने चीन के साथ
सीमा विवाद को सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया, जिसके कारण 1962 में
चीन के साथ युद्ध हुआ।
नेहरू मूलत: कोम्यूनिस्ट
थे। सोबियत यूनियन से गाइड होते थे। चीन को बिलकुल कुछ नहीं कहना चाहते थे। जब चीन
तिब्बत पर हमले की तैयारी कर रहा था तो अमेरिका तैयार बैठा था कि भारत तैयार हो
तो हम लड़ाई का सारा सामन और लॉजिस्टिक देने को तैयार हैं। इस आक्रमण को रोका
जाय। मगर नेहरू इस लड़ाई में चीन के साथ खड़े रहे। वे चीनी सेना को रसद पहुचाते
रहे। जबकि तिब्बत को भारत से सहयोग की अपेक्षा थी।
सरदार पटेल ने नेहरू
को चेताया था कि आप क्या कर रहे हो? पहली बार इतिहास में ऐसा
होगा कि चीन का और भारत का एक साझा बोर्डर हो जाएगा। हमको ऐसा नहीं होने देना
चाहिए। मगर पंडित जी ने कुछ नहीं सुना। यहां तक कि तिब्बत का मामला यूएन में उठने
नहीं दिया। उसका यून में विरोध करते रहे।
1962 हिमालयन ब्लंडर:
भारत-चीन युद्ध आपदा
नेहरू की अयोग्य और
अदूरदर्शी विदेश नीति, दूरदर्शिता की कमी, "फॉरवार्ड पौलिसी", और भारतीय वायु सेना की ग्राउंडिंग के
कारण 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत की अपमानजनक हार हुई। कई अन्य क्षेत्रों
के बीच अक्साई चीन, मानसरोबर, कैलास आदि सहित लगभग ७० हजार
वर्गकिलोमीटर का क्षेत्र चीन ने हमसे छीन लिआ।
पंडित जी की गलतियां
इतनी ही नहीं थी। उन्होंने एक से एक ब्लंडर किया। इतनी कि गिनवा न सकूं । पंडित जी की सारी जिंदगी शराब, सिगरेट, औरतबाजी, षडयंत्र
और चूतियापे में बीत गयी। इसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं। मगर आज
के लिए इतना भी ठीक है आगे फिर कभी बात करेंगे।

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