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जरूरी है भारत का हिंदु बना रहना



जरूरी है भारत का हिंदु बना रहना




आज हिंदुओं के सामने स्तित्‍व का खतरा खड़ा है। भारत में हिंदुओं की आवादी लगातार कम होती जा रही है। हमारे संविधान ने रिलिजियस माइनोरिटीज को धर्म प्रचार का तथा धर्मांतरन का अधिकार दे रखा है। हिंदु धर्म इस दृष्टि से असुरक्षित है। दूसरे धर्मो के सामने यह असहाय है। आज हिंदुओं को नष्‍ट करने के लिए ४ दुश्‍मन सामने खड़े हैं- इस्‍लाम, क्रिश्‍चन, कौम्‍यूनिस्‍ट, और धर्मनिर्पेक्ष । हिंदु इनके मार्ग में बाधा हैं, ऐसा इनका मानना है।  भारत से बाहर तो ये सभी आपस में लड़ रहे हैं, मगर भारत में ये संगठित होकर हिंदुओं के विरूद्ध सकृय हैं। ये सभी अपने अपने तरीके से हिंदुओं के सर्वनाश के लिए कृत संकल्‍प हैं। क्रिश्‍चन आर्थिक प्रलोभन देकर कनवरसन कर रहे हैं। मुसलमपन जहां बहुसंख्‍यक हो जाते हैं वहां हिंदुओं को प्रताडि़त करके उनको पलायन पर मजबूर कर देते हैं। इसी तरह कौम्‍यूनिष्‍ट और सेकुलर अपने अपने तरीके से हिंदु विरोधी आचरण करते हैं। दूसरी तरफ हिंदु सचेत नहीं हैं। 
हमारे चिंतकों ने ऐसा मेहसूस किया था। हिंदु सामुहिकता में नहीं सोचते। उनका धर्म संगठित धर्म नहीं है। उन्‍होंने अपने आस पास कोई बारा नहीं बनाया है। यह एक अर्थ में हमारी विशेषता है, मगर दूसरे अर्थ में यह हमारी राजनैतिक कठिनाइयों का कारण भी है, कि हम धर्म और विश्‍वास के नाम पर संगठित नहीं हो सकते।  हिंदु धर्म अपने स्‍वभाव से ही खुला हुआ है। हम धर्म के नाम पर संगठन बना नहीं सकते । इस तरह की तमाम कोशिशें पूर्व में असफल होती रही हैं। हमरी राजनैतिक कठिनाइयों का कारण है कि हिंदु धर्म अपने स्‍वभाव में ही स्‍वतंत्र है। किसी हिंदु को ईस्‍वर से संबंध रखने के लिए किसी चर्च, किसी मसजिद, किसी फादर या किसी मुल्‍ला की जरूरत नहीं है। यह हमरी विशेषता है, मगर आज के परिदृष्‍य में यही हमरी कठिनाइयां भी हैं। 
आज का भारत आवादी की दृष्टि से ३० प्रतिशत सिकुड़ चुका है, और क्षेत्रफल के हिसाब से हम आधा भारत गवा चुके हैं। और जो हालात हैं, उसमें ऐसा लग रहा कि धीरे धीरे हिंदु अल्‍पमत में हो जाएंगे। फिर तो वही होगा जो कश्‍मीर में हुआ, जो बंगलादेश में हुआ,जो पाकिस्‍तान में हुआ, जो लेबनान में हुआ।

समस्‍या यह है कि इसका समाधान कैसे हो। इसके समाधान का सिरा कहां है। हम जिन से आशा करते हैं कि वो इस समस्‍या का कोई निदान करें वो यह कहते हैं कि संविधान हमरा धर्म ग्रंथ है। संविधान को एक ऐसा दर्जा मिल गया है कि  मानों वहीं सर्वोच्‍च ग्रंथ हो। यह भारत में कभी नहीं रहा। संविधान एक राजनैतिक दस्‍तावेज है, यह कानून की संहिता है। उसमें अबतक १०० से ज्‍यादा एमेन्‍डमेंट हो चुके हैं। इस सविधान में एक समस्‍या है। इसे भारतीयों के लिए नहीं बनाया गया। यह १९३५ में बने गहमेंट औफ इंडिया एक्‍ट की कारबन कापी है। इसे अंग्रेजी शासन को बनाए रखने के लिए बनाया गया।

अगर आप स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, टैगोर, रमन महर्षि, जैसे आधुनिक चिंतकों को पढ़ जांय, तो पाएंगे कि यह भारत की धरती पर धर्म जीवन के सभी पहलुओं का केंद्र रहा था। जब भारत पराधीन था, गरीब था, तब भी जब जब अकाल पड़ते थे, और दूसरी त्रासदियां आती थीं, तब भी वे महापुरूष लोग  धर्म की बात करते थे, वे तब भी रोजगार या फैक्‍ट्री, या गरीबी उन्‍मूलन की बात नहीं करते थे। क्‍या वे गरीबों या पीडि़त लोगों से सहानुभूति नहीं रखते थे। सच यह है कि वे जानते थे कि इन तमाम चीजों की कुंजी कहीं और है। वो धर्म में है।

मगर जब संविधान बनाया जाने लगा तो उसमें धर्म को शामिल ही नहीं किया गया। संविधान में धर्म शब्‍द तक नहीं है। उसमें रिलिजन (मजहब, संप्रदाय) तो है। मगर रिलिजन और धर्म अलग अलग चीजें हैं। यह कोई अचेतन भूल नहीं हुयी थी। संविधान सभा में उसके एक सदस्‍य आचार्य रधुवीर ने अपना विरोध जताया था कि आपने रिलिजन शब्‍द लिया है, आपने धर्म शब्‍द नहीं लिया। इसका अर्थ बिलकुल भिन्‍न है। इसकी निस्‍पत्तियां, इसके परिणाम बहुत खतड़नाक होंगे। फिरभी उनकी बात नहीं सुनी गयी। यह ऐसा संविधान बना जिसमें धर्म रक्षा कहीं शामिल ही नहीं है।

संविधान में माइनोरीटी राइट्स के लिए जो २५ से ३१ धाराएं बनायी गयी, वह हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाती है। इसमें रिलिजन को सोमैटिक रिलीजन के अर्थ में महत्‍व दिया गया जिसमें धर्म प्रचार और धर्मांतरण जुड़ा हुआ है। यह भारतीय धर्म परम्‍परा में कहीं नहीं है। इस संविधान ने रिलिजन को  प्रोटेक्‍शन  दिया मगर धर्म को काउंट तक नहीं किया।  यह भारतीय और विशेषकर हिंदुओं के लिए हाणिकारक, और नुकसानदेह संविधान बना था। स्‍वतंत्रता के बाद वह सैद्धांतिक रूप से और व्‍यवहारिक रूप से, अपने मिजाज में, अपने ओरिएंटेशन में एंटी हिंदू होता चला गया। अगर यह बात सारे प्रिंसली स्‍टेट्स को बतायी गयी होती तो वे कभी भी भारत में शामिल नहीं होते। 
ब्रिटिश भारत पूरे भारत के आधे से भी कम था। ५६२ ऐसे स्‍टेट्स थे जो ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर थे। उनका अपना शासन तंत्र था। वे अपनी इच्‍छा से भारतीय युनियन में मिले थे। उनलोगों ने यह कल्‍पना भी नहीं की थी कि यह एक ऐसा देश, ऐसा शासन तंत्र बनने जा रहा है, जहां धर्म की रक्षा नहीं होगी। जहां धर्म की रक्षा व्‍यक्ति का अपना काम होगा और स्‍टेट यह कहेगा कि हिंदु धर्म या हिंदु समाज के लिए हमारी कोई चिंता नहीं है। यह स्‍टेट की चिंता नहीं है, क्‍योंकि यह सेकुलर स्‍टेट है। मगर यही सेकुलर स्‍टेट क्रिश्‍चन और मुस्लिम के प्रोटेक्‍शन के लिए खड़ा होता है। यह एक तरह से धोखाधड़ी है, फ्रौड है जो संविधान के साथ और विशेषकर भरतीय हिंदु के साथ हुआ है। १९७५ में संविधान के ४२ में संशोधन में तो बाजाप्‍ता सेकुलर और सोसलिस्‍ट शब्‍द लिख दिया गया, जो अपने आप मे इलिगल था, क्‍योंकि इमरजेंसी लगी हुयी थी, विपक्ष जेल में था। उसमें जबरदस्‍ती यह काम हुआ। संविधान निर्माण के समय संविधान सभा में यह डिस्‍कशन हुआ था और उसके बाद सेकुलर शब्‍द को रिजेक्‍ट किया गया था। तय यह हुआ था कि इसमें सेकुलर शब्‍द जोड़ने की जरूरत नहीं है। हिंदु समाज और उसकी परंपरा स्‍वभाव से सेकुलर है। फिर इसका खूब दुरूपयोग हुआ। माइनोरिटिज्‍म के नाम पर वोट बैंक की राजनीति और प्रबल हुयी।  इसने हिंदु विरोधी मानसिकता को मजबूत बनाया।

२ सितम्‍बर १९५३ की बात है, इस संविधान को जलाने की बात स्‍वयं डा. अम्‍बेदकर ने की थी। उन्‍होंने कहा था कि यह भारत को सूट नहीं करता है । यह संविधान हिंदु विरोधी है और इसलिए यह राष्‍ट्र विरोधी भी है। १९ मार्च १९५५ में उन्‍होंने राज्‍य सभा में इसे दुहराया भी था। उनका तर्क यह था कि हमने देवता के निवास के लिए मंदिर बनाया मगर उसमें कोई राक्षस विराजमान हो गया। अत: ऐसे मंदिर को जलाना ही उचित है। हमारा संविधान ऐसा होना चाहिए जो हमारे देश, हमारे समाज, हमरे धर्म, हमारी संस्‍कृति की, हमारी परम्‍पराओं की रक्षा कर सके। मगर यह ऐसा नहीं बन पाया।

हिंदुओं का धर्म, शास्‍त्र महान है, उपयोगी है, मगर इसकी डेमोग्राफी ऋणात्‍मक रूप से बदल रही है। यह इसलिए आज भी जिंदा है, क्‍योंकि एक हिंदु समाज था। अगर हिंदु समाज नहीं रहेगा तो यह ज्ञान, यह धर्म मिट जाएगा। लाहौर, मुल्‍तान और कश्‍मीर के उदाहरण से आप इसे समझ सकते हैं। यह पूरे देश में ऐसा ही होगा जब हिंदु माइनोरिटी बन जाएंगे।   

संविधान के पापों में यह बात भी शामिल है कि इसमें माइनोरीटी का उल्‍लेख तो है मगर मैजोरिटी का उल्‍लेख ही नहीं है। जबकि यह टर्म ही रिलेटिव है। आप किसी को माइनोरिटी नहीं कह सकते जबतब उसकी तुलना में किसी को मैजोरिटी नहीं मानते। मगर इस संविधान में मैजोरिटी टर्म है ही नहीं। इसीलिए बाई इम्‍पलीकेशन मैजोरिटी का कोई अधिकार नहीं है। सिर्फ माइनोरिटी के अधिकार हैं। हमारा संविधान दो तरह का नागरिक बनाता है- माइनोरिटी और गैर माइनोरिटी। आप गैर माइनोरिटी को मैजोरिटी नहीं कह सकते हैं क्‍योंकि मैजोरिटी टर्म संविधान में एक्जिस्‍ट ही नहीं करता। हमारा सविधान हिंदुओं के खिलाफ पक्षपात करता है। एक मुस्लिम अदालत का दरवाजा दो रूपों में खटखटा सकता है-सिटीजन औफ इंडिया और मेंबर औफ माइनोरिटी। उसको दोनो तरह के अधिकार हैं। एक हिंदु को मात्र सिटिजन औफ इंडिया के रूप में अधिकार है। वह अदालत में यह कह ही नहीं सकता कि मैं हिंदु हूं और मेरे साथ यह अत्‍याचार हो रहा है। जबकि देश में ऐसे ५०० पॉकेट बन चुके हैं, जहां हिंदु माइनोरिटी में आ गये हैं, और इस वजह से वे अनेक जुल्‍मों के शिकार हैं। जज पूछेंगे कि संविधान के किस धारा के अंतर्गत हम आपको प्रोटेक्‍ट करें। यह इसलिए हुआ कि संविधान में मैजोरिटी शब्‍द नदारद है। यह संविधान बुरी तरह हिंदुओं के विरूद्ध वायस्‍ड है, उसके विरूद्ध भेदभाव करता है। 
शिक्षण संस्‍थानों का हाल भी बुरा है। गत ७० सालों से हम अपने वच्‍चों को हिंदु विरोधी और राष्‍ट्र विरोधी बना रहे हैं। हम साहित्‍य में, राजनीति शास्‍त्र में, इतिहास में रेडीकल, आइडियोलोजिकल, लेफ्टिस्‍ट, सेकुलर के नाम पर रोज डिविसिव स्‍टफ, एक तरह का स्‍लो प्‍वाइजन रोज़ पढा रहे हैं। धीरे धीरे बाई डिफौल्‍ट वे एंटी हिंदु हो जाते हैं। 
क्‍या कारण है कि हमारे केंद्रिय विद्यालय के सोशल साइंस विभाग के अधिकांश ब्रच्‍चे रेडिकलाइज्‍ड हो रहे हैं, क्‍यों वे सेकुलर और लेफ्टिस्‍ट आइडियोलोजी में फस रहे हैं। उनके टेक्‍स्‍ट में ही इस तरह के जहर बो दिए गये हैं। फलत: उनकी मानसिकता विकृत हो रही है। आप जेएनयू और अलीगढ़ युनीवरसीटी में जाकर देखें। हमारे टैक्‍स पेयर के पैसे से पढने वाले ये बच्‍चे देश विरूद्ध मानसिकता के शिकार हो रहे हैं।

सौ साल पहले विदेशी अधीनता में भी  विवेकानंद, टैगौर, दयानंद सरस्‍वती, महर्षि अरविंद जैसे महापुरूषों को यह चिंता नहीं थी कि भारत हिंदु रहेगा या नहीं । उन्‍हें चिंता थी कि हिंदुओं में जो कुरीतियां हैं, वे कैसे दूर होंगी। मगर आज यह चिंता का विषय है कि भारत हिंदु रहेगा या नहीं । आज हिंदुओं के स्तित्‍व की चिंता होने लगी है। कहां हम भटक गये, कहां गरबरी हुयी। इसका एक उत्‍तर है कि हमने स्‍वयं अपने धर्म को छोड़ दिया। हमने धर्म पर चलना छोड़ दिया। धर्म की चिंता छोड़ दिया। धर्म के बारे में एक सचेत समझ छोड़ दी। हम ग़लत विचारों, गलत शिक्षा, गलत नेताओं, के षडयंत्र में जकड़े गये कि हमने विना जाने धर्म का मार्ग छोड़ दिया। सारी समस्‍या उसी कारण हुयी। इसका समाधान भी वही है। यदि हम धर्म के मार्ग पर वापस चलना शुरू करें तभी हम समाधान का मार्ग ढुंढ पाएंगे।
मनुस्‍मृति में लिखा है-
धर्म एव हतो हंति । धर्मो रक्षति रक्षित: ।।
तस्‍मात धमो न हंतव्‍यो । मानो धर्मो हतो अवधि।।
अर्थात मरा हुआ धर्म, मारने वालों की नाश करता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षा करने वालों की रक्षा करता है। मनु कहते हैं कि धर्म का हनन कभी न करो नहीं तो मारा हुआ धर्म हमे न मार डालेगा।

पिछले सौ सालों में खास कर गांधी जी के भारतीय राजनीति में आने के बाद जो हमारी राजनैतिक, वैचारिक और शैक्षिक दिशा थी, वह भटक गयी। स्‍वामी विवेकानंद ने जो सामाजिक बाते की थी, श्री अरविंद ने जो सामाजिक और राजनैतिक बाते हमे बतायी थी। उनलोगों ने जिन समस्‍याओं की चर्चा की थी, उसके बारे में देश के विभाजन करने वालों ने नहीं सोचा कि उनका क्‍या होगा, उन हिंदुओं और हिंदु मंदिरों का, मठों का, शिक्षा केंद्रों का क्‍या होगा जब वे इस्‍लामी शासन में जाएंगे।
 
इलाहाबाद और लाहौर ब्रिटिश भारत में सबसे बड़े ज्ञान के केंद्र थे। उसमें लाहौर ही बड़ा केंद्र था । बड़े बड़े संगठन वहीं से शुरू हुए थे। आर्य समाज, श्रद्धानंद जी का काम वहीं से शुरू हुआ था। यह पूरा का पूरा हिंदु केंद्र था, जो गैर हिंदू शासन में चला गया। किसी ने इसकी चिंता नहीं की कि इसका क्‍या होगा। शारदा पीठ, मुलतान के सूर्य मंदिर आदि का क्‍या होगा। शायद उन लोगों ने मान लिया कि वह अपने आप सुरक्षित रहेगा। धर्म अपने आप सुरक्षित नहीं रहता है। उसकी रक्षा करनी पड़ती है ताकि वह हमारी रक्षा कर सके।

कुछ लोग विदेशियों को भारत विभाजन के लिए जिम्‍मेवार मानते हैं। मगर ऐसा नहीं था। अगर वे विभाजन करना चाहते तो ५६२ प्रिंसली स्‍टेट को उसी समय अलग अलग स्‍वतंत्र कर देते। कांग्रेस या मुस्लिम लीग की क्‍या हैसियत थी कि वह कुछ कर लेती। आप पटेल साहब की लिखी साहित्‍य पढें तो पता चलेगा कि बहुत सारे ऐसे राजा थे जो स्‍वतंत्र रहना चाहते थे। कश्‍मीर तो कोई बड़ी समस्‍या नहीं थी। वह तो नेहरू साहब की गलती और वेवकुफी के कारण समस्‍या बन गया। सबसे बड़ी समस्‍या तो राजस्‍थान था। वह तो पटेल साहब की काबिलियत और इच्‍छाशक्ति के करण इतनी सहजता से निपट गया।

स्‍वतंत्र भारत में कश्‍मीर से हिंदुओं का नाश हो गया, इसके लिए लिए तो अंग्रेज जिम्‍मेवार नहीं हैं। पिछले १०० सालों में हमारी शिक्षा और विचारधारा ने हमे समस्‍याओं से आंख चुराना सिखाया है। एक गलती कर उसे छिपाने के लिए दूसरी गलती करना, फिर उसके लिए झूठ बोलना, यह हमारी राजनीति और नेतृत्‍व की आदत बन गयी । फिर स्‍वतंत्रता के बाद कौम्‍युनिज्‍म के प्रभाव और नेहरू साहब के माध्‍यम से उस विचारधारा को हमने अपनी शिक्षा में स्‍थापित कर दिया। इससे हमारे साहित्‍य में, शिक्षा व्‍यवस्‍था में, हमारे मीडिया डिसकोर्स में समाजवाद का सम्‍मोहन और  एंटी हिंदू स्‍लैंट पैदा किया गया।

हमारा सनातन धर्म मतवाद नहीं था। विवेकानंद कहते हैं कि मंदिर तो धर्म की पहली सीढी मात्र है। धर्म का वह हीनतम स्‍तर है। हमारा धर्म उसके बाद शुरू होता है। आज जो शिक्षित हिंदु हैं, उनकी बातों में एंटी हिंदु निस्‍पत्तियां झलकती हैं। यह इस दोषपूर्ण शिक्षा और शासन पद्धति के कारण आया। उनके लिए भी धर्म मंदिर तक ही सिमित होकर रह गया है। चाहे राम मंदिर या मथुरा या काशी का मामला हो, उसको लोग उस बिलडिंग या स्‍ट्रक्‍चर या सम्‍पत्ति के रूप में देखते हैं। उसके पीछे के विराट प्रश्‍न से जानबूझ कर आंखे मोरी गयीं।

क्‍या विवेकानंद या रमन महर्षि या महर्षि अरविंद ने इसी के लिए अपना जीवन निछावर किया। मंदिर वास्‍तव में हमारा धार्मिक, राजनैति, सामाजिक मु्द्दा है । उसको संकुचित किया गया, यह हमारे धर्म की विकृत धारणा का प्रमाण है। हमने वह धर्म छोड़ दिया, जिसके लिए विवेकानंद ने विश्‍व विजय की थी। विवेकानंद की जिस बात को पूरी दुनियां ने समझा उसे स्‍वयं हमारे देश के नेताओं ने नहीं समझा और उसे छोड़ दिया।
सुपरफिसियल हिंदु मुस्लिम एकता के चक्‍कर में ये लोग एक झूठ फिर दूसरा झूठ बोलते चले गये। और पूरी की पूरी पीढियों को खराब कर दिया। और धर्म को विकृत जड़पूजा में बदल दिया गया।
आपको याद होगा, गांधी जी ईशाइयत का तो विरोध करते थे, मगर जब इस्‍लाम की बात आती थी, तो या तो वे कुछ नहीं बोलते थे, या उसपर उल्‍टा रूख अक्तियार करते थे। ये उनका दोहरापन हर जगह दिखता था।
यह जो जनसांख्‍यकी का प्रश्‍न है, वह सौ साल पहले उठा था, मगर इस प्रश्‍न को मानो ड्रोप कर दिया गया हो। १९१२ में कर्नल मुखर्जी ने एक किताब लिखी थी, इज हिंदू ए डाइंग रेस, उसके बाद स्‍वामी श्रद्धानंद ने १९२४ एक पुस्‍तक लिखी थी हिंदू संगठना,  जिसमें उसका समाधान सुझाया था। इसमें भी डेमोग्राफी की चर्चा उसी रूप में होती है। फिर राय बहादुर लालचंद ने भी इस समस्‍या पर एक पुस्‍तक लिखी है। इसपर तो सौ सालों से चर्चा हो रही है कि यदि हम डेमोग्राफी पर ध्‍यान नहीं देंगे तो हिंदु नष्‍ट हो जाएंगे। यह  सौ साल पहले का मुद्दा है। मगर बाद के दिनो में कनससली इसे ड्रौप किया गया। बल्कि इसका नाम लेनेवालों को साम्‍प्रदायिक, हिंदु फासिस्‍ट, इनटौलरेंट आदि कहकर उनको लांक्षित किया जाता रहा। जो  पिट रहा है वही उत्‍पीड़क है, ऐसा माना जा रहा है। आज जो मिडिया ट्रायल होता है उसमें हिंदु से हर चीज का हिसाब मांगा जाता है, बांकी से सहानुभूति रखा जाता है।

विवेकानंद ने कहा था कि यदि एक हिंदू धर्मांतरण करता है, तो न सिर्फ एक हिंदु घटता है, बल्कि हिंदू का एक शत्रु बढता है।  आज यदि उनलोगों को कोट करके आप लेख लिखें तो सम्‍पादक उसे छापने से मना कर देते हैं। यह कैसी हमारी धर्म चेतना है, यह कैसा भरत बना है। जिन्‍ना से जब पुछा गया कि आप विभाजन की बात क्‍यों करते हैं तो उसने कहा था कि विभाजन तो तभी तय हो गया था जब सदियों पहले पहला हिंदू मुसलमान में कनभर्ट हुआ था। अब इसमें विवेकानंद की बात को जोड़ दें तो आपको स्‍पष्‍ट तस्‍वीर दिख जाएगी कि इस धर्मांतरण के धंधे को आप सचेत रूप से नहीं रोकते तो हिंदु का स्तित्‍व नहीं बचेगा।
 
इतनी स्‍पष्‍ट बात, इतनी स्‍पष्‍ट समस्‍या और समाघान की दिशा होते हुए भी स्‍वतंत्र भारत में और उससे पहले भी इस देश के नेतृत्‍व ने इसको अपने नोटिस में भी नहीं लिया। जरा सोचिए जब किताबें आसानी से नहीं छपती थीं, ऐसे समय में इस विषय पर तीन तीन किताबें छपने के बाद यदि इस विषय से आंखे फेर ली जाती हैं तो आप समझ सकते हैं कि इसके पीछे क्‍या मनसा हो सकती है। हमने जानबूझ कर इस समस्‍या से अपनी आंखें फेर ली।

स्‍वामी विवेकानंद, स्‍वामी श्रद्धानंद, डा. अम्‍बेदकर, महषि अरविंद आदि इस विषय पर अपनी चिंता पूर्व में जता चुके हैं। यह हिंदुओं के सामने दोहरी विडम्‍बना बनी है। आज जो भारत की स्थिति बनी है उसे सामान्‍य राजनितिक भाषा में बताना मुश्किल है। इस जटिलता को समझना जरूरी है। क्‍या गीता,महाभारत, रामायण में कहीं भी ऐसी प्रवृत्ति की अनुसंसा  है कि तुम सच्‍चाई से मुंह चुरालो। तुम किसी पिडि़त का मारा जाना देखते रहो, या दूसरी ओर नजर धुमा लो, और उसको जस्‍टीफाई करते रहो, झूठे एक्‍सप्‍लानेशन दो। लेकिन स्‍वतंत्र भारत में हमने इसे ही शिक्षा की पौलिसी  बना ली कि इस तरह के प्रश्‍नों को भी हम नहीं उठाएंगे, समाधान खोजना तो दूर की बात रही। आज की शिक्षा ने हमें कमजोड़ और कायर बनाया है, मानसिक रूप से नपुंसक बनाया है।
आज जनसांख्‍यकी विमर्स पर हमारा जो संकोच है, यदि उसे खतम नहीं करेंगे तो इसका समाधान नहीं हो सकता। हमे इसपर सोचना चाहिए। हमने अपने महान गुरूओं, शास्‍त्रों की शिक्षा को उपेक्षित करके पाया क्‍या है। गांधी जी ने हमे एक पौलिसी दी बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो, और इसको उन्‍होंने स्‍टेट पौलिसी में बदल दिया। इसके कारण, जो  अत्‍याचारी और शिकारी थे, उनको खुली छूट मिल गयी। वे जितना चाहें शिकार करें उन्‍हें देखा नहीं जाएगा, उसपर स्‍टेट कुछ नहीं बोलेगी।

विवेकानंद ने कहा था कि एक हिंदू धर्मांतरित होता है, तो उसके साथ हमारा एक दुश्‍मन भी बढता है। इसी के ४० साल बाद लाहोर में जो हुआ, ६० साल बाद ढाका में जो हुआ, और ८० साल बाद कश्‍मीर में जो हुआ, वह दिखाता है कि उनका अंदाजा कितना  सही था।

इसके बावजूद हम इसकी चर्चा करने से बचते हैं। इससे आंख चुराने वाली प्रवृति से हमे बचना होगा। वैश्विक अनुभव भी यही कहता है कि गांंधी जी का यह सिद्धांत हाणिकारक है। आप पूरी दुनिया को देख लें। अमेरिका, इजरायल, रूस, चीन इसका उदा‍हरण है कि जिनलोगों ने समस्‍या को आंख मिला कर देखा, और उससे लड़ने के लिए तैयार हो गये, वहां पर यह डेमोग्राफी ीख ‍‍प्र ‍िम  की समस्‍या नहीं बनी।

दूसरी तरफ हमारे यहां झूठे और मोहक सिद्धांतों और कल्‍पनाओं के अधीन हमने आंख चुराने की प्रवृत्ति बनायी और हमारे यहां यह खतड़नाक परिणाम निकला। विवेकानंद ने कहा था कि वीर ही धरती का भोग भोगते हैं, वीर बनो, निर्भय बनो। भय ही मृत्‍यु है, भय ही पाप है, नरक है, अनुचित है, स्‍वाभिमानहीनता है, भय गलत जीवन है, जितने नकारात्‍मक विचार और चिंतन हैं, वे भय की भावना के कारण पैदा होते हैं। हमारा यह अनुभव है कि हमारी पूरी राजनीति को, पूरी शिक्षा नीति को, मेडिया को भय संचालित करता है।  हम धर्म विरूद्ध काम कर रहे हैं। इसी का परिणाम यह हुआ है कि हम अपनी समस्‍याओं के निदान के लिए अमेरिका पर, रूस पर भरोसा करते हैं, मगर हम अपने आप पर भरोसा नहीं करते।

हमे यह समझना चाहिए कि जो लोग अपने लिए लड़ने को तैयार होते हैं, उन्‍हीं को दूसरों का समर्थन भी मिलता है। आज हमे डेमोग्राफिक चेंज की समस्‍या से निपटने के लिए हमें निर्णायक हस्‍तक्षेप करना ही पड़ेगा।
यहां यह स्‍लोगन दिया जाता है कि विकास सभी समस्‍याओं का हल है, यह वहीं भ्रम है, जिसे गांधी जी ने पाला था। अगर विकास इस्‍लामी डेमोग्राफिक समस्‍याओं का हल होता तो युरोप और अमेरिका और रूस और चीन तो काफी विकसित देश हैं। हमें यदि इस समस्‍या से निपटना है तो हमे उन कार्यों  को पुन: शुरू करना पड़ेगा, जो स्‍वामी दयानंद ने, स्‍वामी श्रद्धानंद ने शुरू की थी।



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