Paper on Hinduism: Read at the Parliament on Religion at Chicago by Swami Vivekanand on 19th September, 1893
वहां भारत में एक के बाद एक न जाने कितने संप्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला सा दिया । किंतु भयंकर भूकंप के समय समंदर के पानी के समान वह कुछ समय पश्चात हजा़र गुणा ताकतवर होकर सर्वग्राही आप्लावन के रूप में पुन: लौटने के लिए वह पीछे हट गया और जब यह सारा कोलाहल शांत हो गया, तब इन तमाम धर्म सम्प्रदायों को अपनी धर्म माता हिंदू धर्म की विराट काया ने चूस लिया, आत्मसात कर लिया और अपने में पचा डाला।
वेदांत
दर्शन की बुलंदतरीन आध्यात्मिक उड़ान से लेकर आधुनिक
विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मुर्तिपूजा
के निम्नस्तरीय विचारों एवं तदानुशंगिक पौरानिक दंतकथाओं तक और बौद्धों के
अज्ञेयवाद तथा जैनो के निरीश्वरवाद, इसमें से प्रत्येक के लिए हिंदू
धर्म में स्थान है ।
तब यह
सवाल उठता है कि वह कौनसा सामान्य विंदु है जहां पर इतनी विभिन्न दिशाओं से आनेवाली त्रिज्यायें केंद्रित
होती हैं? वह कौन सा सामान्य आधार है जिसपर
ये प्रचंड विरोधाभाष आश्रित हैं? इसी
सवाल का जवाब स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के एसेम्बली ऑफ रिलिजन में दिया, जिसको मैं, विनोद सिंह यहां हिंदी में अनुवाद करके
प्रस्तुत कर रहा हूँ।
हिंदू
जाति ने अपना धर्म श्रुति अर्थात वेद से प्राप्त किया है। उनकी
धारणा है कि वेद अनादि और अनंत है । श्रोताओं को मुमकिन है यह बात हास्यास्पद लगे
कि कोई किताब अनादि और अनंत कैसे हो सकती है । मगर
वेद का अर्थ कोई किताब है ही नहीं । वेदों का अर्थ है भिन्न भिन्न
कालों में भिन्न भिन्न लोगों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष । जिस प्रकार ग्रुत्वाकर्षण का
सिद्धांत न्यूटन द्वारा पता लगने के पूर्व से ही अपना काम करता चला आया था और आज
मनुष्य जाति उसे भूल भी जाय, तो भी यह नियम अपना काम करता ही रहेगा, ठीक
वही बात आध्यात्मिक जगत का शासन करने वाले नियमों के संवंध में भी है। एक
आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता परमात्मा के साथ
जो नैतिक तथा आध्यात्मिक संवंध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे
और हम यदि उन्हें भूल भी जाएं तो भी बने रहेंगे।
इन
नियमों या सत्यों का आविष्कार करने वाले ऋषि कहलाते हैं। इन महानतम ऋषियों में कुछ
स्त्रियां भी थीं। यहां यह कहा जा सकता है कि ये नियम , नियम के
रूप में अनंत भले ही हो, पर इनका आदि, तो जरूर होना चाहिए। वेद
हमे सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि है न अंत। विज्ञान ने हमे सिद्ध कर दिखाया
है कि सारे जहान की सारी उर्जा समष्टि का परिमाण, सदा एक सा रहता है। तो फिर, यदि
ऐसा कोई समय था, जब
किसी वस्तु का स्तित्व ही नहीं था, उस समय यह सम्पूर्ण व्यक्त उर्जा
कहां थी? कोई कोई, लोग
कहते हैं कि ईस्वर में ही यह अव्यक्त रूप में निहित था । तब तो ईस्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त है, इससे
तो वह विकारशील हो जाएगा। इस
तरह तो ईस्वर की मृत्व, हो जाएगी, जो अनर्गल है। अगर आप हमे एक उपमा देने की
अनुमति दे तो श्रष्टा और श्रृष्टि मानो दो रेखाएं हैं, जिनका
न आदि है न अंत और जो समांतर चलती हैं।
ईष्वर
नित्य क्रियाशील विधाता है, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से
नित्यषः एक के बाद एक ब्रह्मांड का श्रृजन होता है, वे
कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात वे विनष्ट कर दिए
जाते हैं।
सूर्याचंद्रमसौ
धाता यथा पूर्वम कल्पयत, अर्थात इस सूर्य और चंद्रमा को विधाता ने
पूर्व कल्पों के सूर्य और चंद्रमा के समान निर्मित किया है, इस
वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक हिंदू वालक प्रतिदिन करता है।
यहां
मै खड़ा हूं, और अपनी आंखें बंद करके यदि मैं
अपने स्तित्व मैं, मैं, मैं को समझने का प्रयत्न करूं, तो
मुझमें किस भाव का उदय होता है? इस
भाव का कि मैं शरीर हूं। तो
क्या मैं भौतिक पदार्थों के संधात के सिवा कुछ भी नहीं हूं?
वेदों
की घोषणा है नहीं, मैं शरीर में रहनेवाली आत्मा हूं, मैं
शरीर नहीं हूं। शरीर मर जाएगा मगर मैं नहीं मरूंगा। मैं
इस शरीर में विद्यमान हूं, और जब इस शरीर का पतन होगा , तब भी
मैं विद्यमान रहूंगा ही।
मेरा
एक अतीत भी है। आत्मा
की श्रृष्टि नहीं हुयी है, क्योंकि श्रृष्टि का अर्थ है, भिन्न
भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन
अवष्यमभावी है। अतैव
यदि आत्मा का श्रृजन हुआ है तो इसकी मौत भी होनी चाहिए।
कुछ
लोग जन्म से ही सुखी होते हैं, पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्हें
सुंदर शरीर उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियां प्राप्त रहती हैं। दूसरे लोग जन्म से ही दुखी होते
हैं, किसी
के हाथ या पांव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और
येन केन प्रकारेण अपने दुखमय जीवन के दिन काटते हैं।
एैसा
क्यों ? यदि
ये सभी एक ही न्यायी और दयालु ईष्वर ने श्रृजन किया है, तो फिर
उसने एक को सुखी और दूसरे को दुखी बनाया? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों है? फिर
ऐसा मानने से भी बात सुधर नहीं सकती कि जो वर्तमान जीवन में दुखी है, वे
भावी जीवन में पूर्ण सुखी होंगे । न्यायी और दयालु ईष्वर के राज्य में मनुष्य
इस जीवन में भी दुखी क्यों रहे ?
दूसरी
बात यह है कि श्रृष्टि उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धांत विषमता की कोई
व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान पुरुष का
निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता है । अतएव
इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिसके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म
में सुखी या दुखी हुआ करता है। और ये कारण हैं, उसके
ही पूर्वानुष्ठित कर्म।
क्या
मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त
क्षमता और द्वारा नहीं हो सकती? यहां जड़ और चेतन (मन)
सत्ता की दो समांतर रेखाएं हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपांतर ही, जो
कुछ यहां है, उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो
आत्मा के स्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती । पर यह
सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य अर्थात विचार का विकास जड़ पदार्थ से हुआ है।
हम यह
अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है, किंतु
ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति है, जिसके माध्यम से एक विशेष मन एक
विशेष प्रकार से काम करता है । आत्मा
की कुछ ऐसी विशेष प्रवृत्तियां होती है जिसकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती है।
योग्यं
योग्येन युज्जते, इस नियमानुसार, एक विशेष प्रवृत्ति वाली जीवात्मा उसी शरीर में जन्म
ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के
लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि
विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और
आदत आवृत्तियों से बनती है। अतएब
नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियां अनिवार्य हो जाती
हैं। और चुकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होतीं, अतः
वह पिछले जीवन से ही आयी होंगी ।
अतएब
हिंदू का यह विश्वास है कि वह आत्मा है । उसको शस्त्र काट नहीं सकते, आग
जला नहीं सकती, पानी भिंगा नहीं सकता, हवा
सुखा नहीं सकती। हिंदुओं
की यह धारणा है कि आत्मा एक ऐसा वृत है, जिसकी
परिधि कहीं नहीं है, किंतु जिसका केंद्र शरीर में
अवस्थित है, और मृत्यु का अर्थ है, इस
केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थांतरण हो जाना। यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध
नहीं है । वह
स्वरूपतः नित्य, शुद्ध, बुदध, मुक्त
स्वभाव है । परंतु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बंधी
हुयी पाती है, और
अपने को जड़ ही समझती है ।
अतएव
मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर है, पूर्ण और अनंत है, मृत्यु
का अर्थ है आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में केंद्र परिवर्तन । वर्तमान
अवस्था हमारे पूर्वानुस्ठित कर्मो द्वारा निश्चित होती है, और
भविष्य वर्तमान कर्मो द्वारा । आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती
हुयी कभी उपर विकास करती है, कभी प्रत्यागमन करती है।
एक
वैदिक ऋषि को अंत:स्फूर्ति प्रदान की, और
उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनंद संदेश की घोषणा की कि हे
अमृत के पुत्रों, सुनो, हे
दिव्य धामवासी देवगण, तुम भी सुनो, मैंने
उस अनादि पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त
अज्ञान, अंधकार
और माया के परे है, केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम
मृत्व के चक्र से छूट सकते हो, दूसरा कोइ पथ नहीं है ।
अमृत
के पुत्रों, बंधुओं, निश्चय ही हिंदू आपको पापी कहने से इनकार करता है, आप तो ईस्वर की संतान हैं, परम
आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं । आप तो
मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप
उठें, हे
सिंहों आएं, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर
फेक दें कि आप भेड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा
मुक्त, आनंदमय
और नित्य । आप जड़
नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो
आपका दास है, न कि आप दास हैं जड़ के ।
इस
तरह वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह श्रृष्टि व्यापार
कतिपय निर्मम विधानो का संघात है, और न यह कि वह कार्य कारण की अनंत
कारा है । बरण
वह यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल में, जड़त्व
और शक्ति के प्रत्येक अणु और परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान है, जिसके
आदेश से वायु चलती है, आग दहकती है, और
मृत्व पृथ्वी पर नाचती है। और उस पुरुष का स्वरूप क्या है?
वह सर्वत्र है, शुद्ध, निराकार, सर्वषक्तिमान है,
सब पर उनकी पूण दया है। तू हमारा पिता है,
तू हमारी माता है,
तू हमारा प्रेमास्पद सखा है। तू ही सभी शक्तियों का मूल है। हमे शक्ति दे।
तू ही इस अखिल भुवन का भार ग्रहण
करने वाला है। तू मुझे इस
जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे। वैदिक ऋषियों ने यही गाया है।
हम उनकी पूजा किस प्रकार करें ? एहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय
जानकर उस प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए।
वेद
हमे प्रेम के संवंध में इसी प्रकार की शिक्षा देता है । अव देखें कि भगवान श्री कृष्णने, जिन्हें
हिंदू लोग धरती पर ईस्वर का अवतार मानते हैं, इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण
विकास किस प्रकार किया है और हमे क्या उपदेश दिया है।
उन्होंने
कहा कि मनुष्यों को इस संसार में पद्पत्र की तरह
रहना चाहिए। जो
अर्थात पद्पत्र पानी में रहकर भी नहीं
भीगता। उसी
प्रकार मनुष्य को भी रहना चाहिए, उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और
उसके हाथ कर्म करने मे लगे रहें।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से
प्रेम करना बुरी बात नहीं है मगर
केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सबसे अच्छा है। और उसके निकट यही प्रार्थना करना उचित है, कि हे भगवान,
मुझे न तो सम्पत्ति चाहिए,
न संतति,
न विद्या चहिए। यदि तेरी इच्छा है,
तो सहस्त्रों बार जन्म मृत्यु के
चक्र में पड़ूंगा, पर
हे प्रभो, केवल
इतना ही दे कि मैं फल की आशा छोड़कर तेरी भक्ति करूं,
केवल प्रेम के लिए ही तुझपर मेरा
निश्वार्थ प्रेम हो । वह अखिल सौंदर्य, समस्त सुषमा का मूल है। वही एक ऐसा पात्र है जिससे प्रेम करना चाहिए।
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप है । वह केवल पंचभूतों के बंधनों में बंध गयी है। और उन बंधनो के
टूटने पर वह पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी। इस अवस्था का नाम मुक्ति है। जिसका
अर्थ है स्वाधीनता। - स्वतंत्रता, अपूर्णता के बंधनों से मुक्ति,
मृत्यु और दुख से मुक्ति।
यह
बंधन केवल ईश्वर के दया से ही टूट सकता है। और यह
दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतः
पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी
दया किस प्रकार काम करती है? वह पवित्र हृदय को प्रकासित करता
है। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर
दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। तब
उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है। तब
सारे संदेह दूर हो जाते हैं। तब वह कार्य कारण के भयावह नियम
के हाथ का खिलौना नहीं रह जाता ।
यही
हिंदू धर्म का मूल सिद्धांत है, यही उसका अत्यंत मार्मिक भाव है। हिंदू
शब्दों और सिद्धांतों के जाल मे जीना नहीं चाहता। यदि
इन साधारण इंद्रिय संवेद्य विषयों के पड़े और भी कोई सत्ताएं हैं, तो वह
उनको प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता है। यदि
उसमें कोइ आत्मा है जो जड़ वस्तु नहीं है। यदि उसमें कोइ दयामय सर्वव्यापी
विश्वात्मा है, तो वह
उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र
उसी से उसकी समस्त, शंकाएं दूर
होंगी।
अतः
हिंदू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम
प्रमाण देते हैं कि मैने आत्मा का दर्शन किया है, मैने
ईश्वर का दर्शन किया है। यही पूर्णत्व की एक मात्र शर्त है। हिंदू
धर्म किन्हीं मतों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संधर्ष या प्रयत्न में
निहित नहीं है । वरण
वह साक्षात्कार है, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह
होना और बनना है।
इस
प्रकार हिंदुओं के सारे साधन प्रणाली का लक्ष्य है, सतत अध्यवसाय
द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर
तक पहुंना और उसके दर्शन करना । और ईश्वर को उसी प्रकार प्राप्त
करना, उसके
दर्शन कर लेना, उस स्वर्गस्त पिता के समान पूर्ण
हो जाना हिंदुओं का धर्म है।
और जब
मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है तब उसका क्या होता है? तब वह असीम परमानंद का जीवन व्यतीत करता है जिस
एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना चाहिए, उसे अर्थात ईश्वर को पाकर वह परम
तथा असीम आनंद का उपभोग करता है।
यहां तक सभी हिंदू एकमत हैं। भारत के सभी सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म है। परंतु जो पूर्ण
वह निरपेक्ष होता है और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई
गुण नहीं हो सकता । वह व्यक्ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निर्पेक्ष हो जाती है,
तो वह व्रह्म के साथ एक हो जाती
है। और
वह ईश्वर को केवल अपने ही स्वरूप की पूर्णता,
सत्यता और सत्ता के रूप में,
परम सत्य,
परम चित्,
परम आनंद के रूप में प्रत्यक्ष
करती है । इसी
साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि इसमें मनुष्य अपने
व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता है या पत्थर के समान बन जाता है।
जिन्हें कभी चोट नहीं लगी,
वे ही चोट की दाग की ओर हंसी की
दृष्टि से देखते हैं। मैं
आपको बताता हूं कि ऐसी कोई बात नहीं होती। यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना
आनंद होता है । तो
दो शरीरों की चेतना का आनंद अधिक होना चाहिए, और उसी तरह क्रमश: अनेक शरीरों की चेतना के
साथ साथ आनंद की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए। और
विश्वचेतना का बोध होने पर आनंद की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारा स्वरूप
दुखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अंत होना चाहिए। जब मैं प्राणरूप से एक हो जाउंगा,
तभी मृत्यु के हाथ से मेरा
छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनंदस्वरूप हो जाउंगा, तभी दुख का अंत हो सकता है। जब मैं ज्ञानरूप हो जाउंगा,
तभी सब अज्ञान का अंत हो सकता है। और यह अनिवार्य वैज्ञानिक
निष्कर्ष है। विज्ञान
ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र है । वास्तव में मेरा यह शरीर एक
अविच्छिन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होते रहनेवाला पिंड है। और मेरे दूसरे पक्ष आत्मा के
संबंध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष है।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही
कोई विज्ञान पूण एकता तक पहुच जाएगा, त्योंही उसकी प्रगति रुक जाएगी । क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर
लेगा । उदाहरण के लिए यदि रसायन शास्त्र
एक बार उस मूल तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव बन सकते हैं,
तो फिर वह और आगे नहीं बढ सकेगा।
। भौतिक
शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियां जिसकी अभिव्यक्ति हैं,
तब वह वहीं रुक जाएगा । वैसे ही,
धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को
प्राप्त कर लेगा, जब
वह उसको खोज लेगा, जो
मृत्व के इस लोक में एक मात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत का शास्वत आधार है। जो एकमात्र परमात्मा है,
अन्य सभी आत्माएं जिनकी प्रतीयमान
अभिव्यक्तियां हैं। इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हुए,
इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती
है ।
धर्म इससे आगे नहीं जा सकता। यही तमाम विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। समग्र
विज्ञान अंततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुंचेंगे । आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति है,
श्रृष्टि नहीं। और हिंदू को यह देखकर प्रसन्नता है कि जिसको वह अपने अंतस्थल में इतने युगों से महत्व देता रहा है,
अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा
में विज्ञान के नवीनतम निष्कर्षों के अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही है।
अब हम दर्शन की
अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगो के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारम्भ में ही आपको बता देना चाहता
हूं कि भारत में अनेक ईश्वरवाद नहीं है। प्रत्येक मंदिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने,
तो वह यही पाएगा कि भक्तगण
सर्वव्यापक आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं । यह अनेकेश्वरवाद
नहीं है, न
ही एक देववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती है।
जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में मैं ऐसे मनुष्यों को
पाता हूं, जिनकी
नैतिकता, आध्यात्मिकता,
और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूं,
और अपने से यही पूछता हूं कि क्या
पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती है?
अंधविश्वाकस
मनुष्य का महान शत्रु है, पर धर्मांधता तो उससे भी बढ़कर
है। मेरे भाइयों ! मूर्ति के बिना आए सोच सकना उतना ही असंभव है
जितना श्वास लिए बिना जिवित रहना। साहचर्य के नियम के अनुसार भौतिक मूर्ति से
मानसिक भाव विशेष का उद्दीपन होता है, अथवा मन में भाव विशेष का उद्दीपन होने से तदनुरूप मूर्तिविशेष का भी आविर्भाव
होता है। इसीलिए हिंदू
अराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता है।
वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को अपने ध्यान के विषय
परमेष्वर में एकाग्रता से स्थिर रहने में सहायता देता है।
वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह जानता है,
जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न
तो ईश्वर है और न सर्वव्यापी ही। और सच पूछिए तो दुनियां के लोग
सर्वव्यापित्व का क्या अर्थ समझते हैं? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र
है। क्या परमेष्वर का भी कोई क्षेत्रफल है? यदि नहीं तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं,
उस समय विस्तृत आकाश या अंतरिक्ष की ही कल्पना करने के सिवा
हम और क्या करते है?
अपनी मानसिक संरचना के अनुसार,
हमें किसी प्रकार अपनी अनंतता की भावना को नीले आकाश
या अपार समुद्र की भावना से सम्बद्ध करना पड़ता है। उसी
प्रकार हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभाव के अनुसार चर्च या मस्जिद या क्रूस से
जोड़ लेते हैं हिंदू लोग पवित्रता, नित्यत्व,
सर्वव्यापित्व,
आदि आदि भावों का सम्बंध विभिन्न
मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं।
अंतर यह है कि जहां अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी चर्च की मूर्ति की भक्ति में
ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही है कि कुछ
विषिष्ट सिद्धांतों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर लें और अपने
बंधु बांधवों की भलाई करते रहें, वहां
एक हिंदू की सारी धर्म भावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्म साक्षात्कार में
केंद्रीभूत होती है। मनुष्य
को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियां,
मंदिर,
चर्च या ग्रंथ तो धर्मजीवन की
बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र है। पर उसे उत्तरोत्तर प्रगति ही करनी चाहिए। मनुष्य को कहीं
रुकना नहीं चाहिए।
उत्तमो ब्रह्म सद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः।
स्तूतिर्जपोधमो भावो बहिः पूजा अधमाधमा।।
शास्त्र का वाक्य है
कि बाह्य पूजा या मूर्ति पूजा सबसे
नीचे की अवस्था है। आगे बढ़ने का प्रयास
करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की
दूसरी अवस्था है। मगर, और सबसे उंची
अवस्था तो वह है कि जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए । देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा है। सूर्य
उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न
चंद्रमा, न
तारागण ही। वह
विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकता, तब इस
आग की बात ही क्या ? ये सभी उसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते
हैं ।
न
तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भांति कुतो यमग्निः।
तमेव
भांतम नुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।
पर हिंदू किसी की
मूर्ति को गाली नहीं देता, और न उसकी पूजा को
पाप ही बताता है। वह तो उसे जीवन की
एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता है। बालक
ही मनुष्य का जनक है। तो क्या किसी वृद्ध पुरुष के बचपन
या युवा अवस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा?
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से
अनुभव कर सकता है, तो
क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और
जब वह उस अवस्था के परे पहुंच गया है, तब भी उसके लिए मूर्तिपूजा को भ्रमात्मक कहना
उचित नहीं है।
हिंदू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा
है, वह
तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी की सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर
हो रहा है।
हिंदू के मतानुसार, निम्नतम जड़ पूजावाद से लेकर सर्वोच्च
अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने अपने जन्म और साहचर्य की अवस्था
द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानव अवस्था के
विभिन्न, प्रयत्न
है। और इसमें से
प्रत्येक प्रयास उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता है। प्रत्येक
जीव उस युवा गरुड़ के समान,
जो धीरे धीरे उंचा उड़ता हुआ अंत
में उस भाष्कर सूर्य के पास पहुंच जाता है।
अनेकता
में एकता प्रकृति का विधान है और हिंदुओं ने इसे स्वीकार किया
है। अन्य सभी, प्रत्येक
धर्मो में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिवद्ध कर दिए गये है । और
सारे समाज को उसे मानना अनिवार्य कर दिया गया है । वह समाज के सामने सिर्फ एक कोट रख देता है, जो
जैक, जौन, और
हेनरी सभी को ठीक होना चाहिए यदि वह जौन या हेनरी के शरीर में
ठीक नहीं आता, तो
उसे अपना तन ढकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा।
हिंदुओं
ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार, चिंतन
या वर्णन केवल सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है ? और
मूर्तियां, क्रोस, या
नवोदित चंद्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं। वे
मानेा बहुत सी खुटियां हैं, जिनमें धार्मिक भावनाएं लटकायी
जाती हैं ।
ऐसा नहीं कि इन
प्रतीकों की आवश्यकता हर किसी के लिए हो, किंतु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता
नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं है कि वे ग़लत हैं
। हिंदू धर्म में ये अनिवार्य नहीं है ।
एक बात आपको अवश्य बतला दू । भारतवर्ष में मूर्तिपूजा कोई जधन्य बात नहीं
है ? वह व्यविचार की जननी नहीं है । वरण वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक
भाव को ग्रहण करने का उपाय है ।
अवश्य हिंदू के बहुतेरे दोष हैं, उसके कुछ अपने
अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए, उसके वे दोष अपने ही शरीर को उत्पीड़ित करने तक सिमित है।
पर वे कभी अपने पड़ोसियों का गला काटने नहीं
जाते। एक हिंदू
धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आपको जला डाले। पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए इनक्विजिशन की आग
प्रज्वलित नहीं करेगा। और इस बात के लिए उसके धर्म को उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया
जा सकता, जितना डायनों को जलाने का दोष इसाई धर्म पर मढ़ा
जा सकता है। अतः हिंदुओं की दृष्टि में समस्त
धर्मजगत भिन्न भिन्न रूचि वाले स्त्री पुरुषों की,
विभिन्न अवस्थाओं में से होते हुए
एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है ।
सभी धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा है, और वही ईश्वर उन सबका प्रेरक है तो फिर इतने
परस्पर विरोधाभाष क्यों ? हिंदुओं
का कहना यह है कि ये विरोधाभाष केवल आभासी हैं । उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरूप अपना
समायोजन करते समय होती है । वही एक ज्योति भिन्न
भिन्न रंग के कांच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती है । समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक
है। प्रत्येक के
अंतस्थल में उसी सत्य का राज है । ईष्वर ने अपने कृष्णावतार में हिंदुओं को यह
उपदेश दिया है,
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इवं ।।
अर्थात प्रत्येक धर्म में मैं मोती की माला में
सूत्र की तरह पिरोया हुआ हू्ं।
यद्यद्विभूति मत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजों शसम्भवम्।।
जहां भी तुम्हें मानव श्रृष्टि को उत्पन्न करनेवाली और पावन
बनानेवाली अतिशय पवित्रता और असाधरण शक्ति दिखाई दे,
तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है ।।
और इस शिक्षा का परिणाम क्या है? सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे
एक एैसी उक्ति तो दिखा दें, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिंदुओं का ही
उद्धार होगा, दूसरों का नहीं।
व्यास ऋषि कहते हैं कि हमारी जाति और सम्प्रदाय के सीमा के
बाहर भी पूर्णत्व तक पहुचे हुए मनुष्य हैं। एक बात और है । ईस्वर में ही अपने सभी भावों को केंद्रित
करनवाला हिंदू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीष्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता
है। यद्यपि बौद्ध तथा जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते। तथापि
उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान केंद्रीय सत्य,
मनुष्य में ईश्वरत्व के विकास की ओर उन्मुख है। उन्होंने पिता को भले ही न देखा
हो पर उन्होंने पुत्र को अवश्य देखा है। और
जिसने पुत्र को देख लिया उसने पिता को भी देख लिया ।
भाइयों हिंदुओं के धार्मिक विचारों की यही संक्षिप्त
रूपरेखा है। हो सकता है कि हिंदू अपनी सारी योजनाओं को कार्यान्वित करने
में असफल रहा हो, पर
यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं
होगा, वह
उस असीम ईश्वर के सदृष्य ही असीम होगा। जिसका वह उपदेश देगा, जिसका सूर्य भगवान श्री कृष्ण और ईसा मसीह के अनुआयियों पर,
संतों और पापियों पर समान रूप से
प्रकाश विकीर्ण करेगा, जो
न तो ब्राह्मण होगा, न
बौद्ध, न
ईसाई और न इस्लाम, वरण
इन सब धर्मो की समष्टि होगा। किंतु फिरभी जिसमें विकास के लिए अनंत अवकास होंगे। जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित उन्नत
निम्नतम धृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण
मानवता से इतना उपर उठ गये उच्चतम मनुष्य तक को,
जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धानत
हो जाता है,
और लोग जिनके मनुष्य होने में
संदेह करते हैं, अपनी
बाहुओं से आलिंगन कर सके और उसमें सबको स्थान दे सके। यह धर्म ऐसा
होगा, जिसकी
निति में उत्पीड़ण और असहिष्णुता का स्थान नहीं हेागा । वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष मे दिव्यता को
स्वीकार करेगा। और
उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची,
दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार
करने के लिए सहायता देने में ही केंद्रित होगा ।
आप ऐसा धर्म सामने रखिए और सारे राष्ट्र आपके अनुआयी बन
जाएंगे। सम्राट अशोक की परिषद बौद्ध परिषद थी ।अकबर की परिषद अधिक उपयुक्त होते
हुए भी, केवल
बैठक की गोष्ठी थी । मगर पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका
के लिए ही सुरक्षित था, कि प्रत्येक धर्म में ईश्वर है।
वह जो हिंदुओं का ब्रह्म है,
पारसियों का अहुरमजदा है,
बौद्धों का बुद्ध है,
और ईसाईयों का स्वर्गस्त पिता है,
आपको अपने उद्देष्य को
कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करे !
नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुंधला
तो कभी देदीप्यमान होते हुए धीर धीरे, पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत की परिक्रमा कर डाली और अब वह फिर प्राची के छितिज में सहत्र गुणी अधिक ज्योति
के साथ उदित हो रहा है।
हे स्वाधीनता की मात्रृभूमि कोलम्बिया, तू धन्य है। यह तुम्हारा सौभग्य है कि तूने कभी अपने पड़ोसियों के रक्त
से हाथ नहीं भिंगोये तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्य हरण कर सहज
में ही धनी और सम्पन्न होने की चेष्टा नहीं की । अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की
अग्रणी होकर चलने का सौभग्य तेरा ही था।



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