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नेहरू और उसके नशेरी रक्षा मंत्री के कारण हम १९६२ में चीन से हार गये

V K Menon and J L Nehru
V K Menon and J L Nehru



भारत चीन सीमा पर जो खूनी संघर्ष हुआ है उसमें हमारे २० सैनिक शहीद हो गये। उन्‍होंने बेशक दुश्‍मन के ४३ सैनिकों को भी मार डाला। मगर हमे हमारे शहीदों के शहादत का गम भी है। आज हम ऐसे बारदातों से बच सकते थे, अगर समय रहते आजादी के बाद हम इस सीमा विवाद को सुलझा लेते। आजादी के बाद हमारे पास मौका था कि हम इन समस्‍याओं को सुलझा लेते मगर यह क्‍यों न हो सका,  इसे समझने के लिए हमे उस समय के प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और रक्षा मंत्री वी के मेनन और दोनों के बीच के रिश्‍तों को उन संदर्भों में समझना होगा। 

भारत चीन सीमा पर जो भी विवाद है, उसकी व्‍याख्‍या जवाहर लाल नेहरू और उसके जिगरी दोस्‍त, वी के कृष्‍णमेनन की चर्चा के बिना संभव नहीं है। भारत चीन सीमा समस्‍या के लिए और सन १९६२ के भारत चीन युद्ध में भारत की शर्मनाक पराजय के लिए जो दो आदमी सर्वाधिक जिम्‍मेवार हैं उसमें एक है भारत के तत्‍कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू और दूसरे हैं तत्‍कालीन रक्षा मंत्री वी के मेनन ।

 

तत्‍कालीन रक्षा मंत्री वी के मेनन और उनका व्‍यक्तित्‍व 

सोचिए, जो व्‍यक्ति ड्रग एडिक्‍ट था, जिसके कई महिलाओं से नाजायज संबंध थे, जो सेक्‍स मनोरोगी था, जिसको बिजली के झटके दिए जाते थे, जिसपर भारत का पहला घोटाला करने का आरोप था, जो लंडन में बतौर भारतीय राजदूत सोवियत संघ के लिए जासूसी करता था, जो यूनाइटेड नेशन में वामपंथी देशों के लिए लौबिइंग (दलाली) करता था, जिसने भारतीय सेना में भाई भतीजावाद, पक्षपात और भेद भाव  को बढावा दिया, जिसने इंडियन आर्मी को नष्‍ट करने की भरपूर कोशिश की, जिसकी वजह से भारत चीन का युद्ध हारा, जिसकी वजह से आज भी भारतीय सेना सरहदों पर अपना खून बहाती है और सहादत देती है, वह था वी के मेनन, जवाहरलाल नेहरू का जिगरी दोस्‍तआज हम उस प्रकरण पर प्रकाश डालेंगे।

यह आदमी १९६२ के युद्ध के समय भारत का रक्षामंत्री था। इस युद्ध में भारत की रक्षा के बजाय उसने भारत की हार में अपनी भूमिका अदा की। वह रक्षा मंत्री बनने लायक कहीं से नहीं था। ये उस समय ही सब लोग कहने लगे थे। मगर पंडित नेहरू उसको हमेशा बचाते रहे। पंडित जी मेनन की हर गलती को नजरअंदाज करते रहे। मेनन और नेहरू की यह यारी देश पर भारी पड़ी

नेहरू और मेनन की नापाक दोस्‍ती की कहानी

१९३० के दशक में जवाहर लाल नेहरू और वी के कृष्‍ण मेनन की लंडन में मुलाकात हुई। मेनन कट्टर वामपंथी थे और नेहरू का झुकाव भी वामपंथ की तरफ था। दोनो के बीच कौमरेड वाली दोस्‍ती हो गयी। इसके अलावा इन दोनो को शराब, सिगरेट और औरतवाजी में एक ही जैसी रूचि थी। मेनन नेहरू की किताबों को लंडन में छपवाते थे। यहां तक कि नेहरू की किताब Unity Of India की प्रस्‍तावना भी मेनन ने ही लिखी। नेहरू को रोयाल्‍टी से मिलने वाले सारे हिसाब किताब को मेनन ही देखते थे। नेहरू ने मेनन के सारे एहसान चुकाने मे देर नहीं की। 

देश जब आजाद हुआ तो नेहरू ने मेनन को भारत का पहला High Commissioner बना दिया। उस दौर में वरिष्‍ठ पत्रकार खुशवंत सिंह Indian High Commission में मेनन के साथ काम करते थे। खुशवंत सिंह ने अपनी किताब सच प्‍यार और थोड़ी सी शरारत में मेनन के बारे में कुछ खुलासा किया है। खुशवंत सिंह  अपनी किताब के पेज नम्‍बर १२५ पर लिखते हैं कि मेंनन एक बदमिजाज और नाकाम बैरिस्‍टर थे। नेहरू जब ब्रिटेन आते थे तो मेनन उनकी जी हूजूरी में लगे रहते थे। वे अपने पावर का इस्‍तेमाल अपनी संस्‍था India League के लिए करते थे। उन्‍होंने इसके लिए कई अंग्रेजों से धन लिया। इसके बदले में उन्‍होंने उन्‍हें भारत को हथियार बेचने के ठेके दिलवाये। मेनेन एक पैदायसी झूठे इंसान थे। उनकी नजर हमेशा सुंदर महिलाओं पर रहती थी। Indian High Commission में उनके कई महिलाओं से नाजायज संबंध थे।

भारत का पहला घोटाला जीप घोटाला मेनन और नेहरू ने किया

खुशवंत सिंह ने मेनन के चरित्र पर ऐसे ही सवाल नहीं उठाया। भारत का पहला घोटाला जिसे जीप घोटाला कहा जाता है, वी के  मेनन ने ही किया था। भारतीय सेना के लिए ब्रिटेन से २०० पुरानी जीपें खरीदी गयीं थीं। उसका पूरा पैसा भारत ने चुका दिया मगर इसमें ५६ जीपें सेना को मिल पायीं। और बांकी जिपों का क्‍या हुआ यह मेनन और नेहरू को ही पता। मेनन के कहने पर ही नेहरू ने ये पूरानी जिपें खरीदी थी। इस घोटाले को फिरोज गांधी ने उठाया। इसकी जांच के लिए अयंगार कमीटी का गठन भी किया गया। १९५५ में नेहरू सरकार ने इसकी फाइल को हमेशा के लिए क्‍लोज कर दिया।

मेनन पर सेक्‍स स्‍कैंडल और ड्रग्‍स के आरोप

मेनन पर सेक्‍स स्‍कैंडल और ड्रग्‍स लेने के भी संगीन आरोप थे। नेहरू के २० सालों तक पर्सनल सेकरेटरी एम ओ मथई ने अपनी किताब Reminiscences of the Nehru Age में लिखा कि मेनन ने खुद को ड्रग का गुलाम बना लिया था। वह सेक्‍स स्‍कैंडल में भी फंसा हुआ था। अक्‍टूबर १९५१ में नेहरू ने मुझे लंडन जाकर मेनन के बारे में जांच करने को कहा। जब मैं वहां पहुचा तो मेनन दफ्तर में ड्रग के ओवरडोज में था और अपनी आंखे नहीं खोल पा रहा था। यहां तक कि नेहरू के भेजे पत्र भी उसने खोल कर नहीं देखा था। वह उसके मेज पर वैसे ही पड़ा था। मेनन के परिचित डाक्‍टर हांडू ने मुझे बताया कि मेनन एक मानसिक बीमार व्‍यक्ति है और लगभग पागल है। मुझे आश्‍चर्य है कि नेहरू ने ऐसे आदमी को इतना बड़ा पद क्‍यों दे रखा है।
 
मथई आगे लिखते हैं कि बाद में मैं मेनन के ब्रिटिस डाक्‍टर से मिला। उसने बताया कि मेनन को बिजली का sock  दिया जाता है।  उसे Persecution mania नाम की बीमारी है। मेनन मानसिक यौन रोगी है। वह अत्‍यधिक यौन क्रिया में लिप्‍त रहता है।

नेहरू ने मेनन पर कभी कोई एक्शन नहीं लिया

मथई आगे लिखते हैं कि लंडन से लौटकर मैने प्रधान मंत्री नेहरू को यह सब बता दिया। और मैंने सुझाव दिया कि मेनन को तत्‍काल प्रभाव से हटा दिया जाना चाहिए। वह इस पद के लायक बिलकुल नहीं है। नेहरू ने मथई से कहा कि यह मेरी ही गलती है। मुझे एक साल पहले ही एक्‍शन लेना चाहिए था। मगर सच तो यह है कि नेहरू ने मेनन पर कभी कोई एक्शन नहीं लिया।

भारत का हाई कमिश्‍नर लंडन में सोबियत संध के लिए जासूसी करता था

मथई लिखते है कि मेनन लंडन में भारत का हाई कमीशनर था। मगर वह वहां बैठकर सोबियत संघ के लिए जासूसी करता था। इसकी जानकारी ब्रिटेन के प्रधन मंत्री एटली को हो गयी थी। उन्‍होंने यह बात नेहरू को बता भी दी। उन्‍होंने उसके बाद मेनन को United Nation में भारतीय प्रतिनीधि मंडल का प्रमुख बना दिया। और ५ साल बाद १९५७ में नेहरू ने मेनन को भारत का रक्षा मंत्री बना दिया। नेहरू ने मेनन से अपनी दोस्‍ती बरकरार रखी।

रक्षा मंत्री बनते ही मेनन ने सेना में अराजकता फैलाया

रक्षा मंत्री बनते ही मेनन ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया। वह सैनिक अधिकारियों की मनचाही पोस्टिंग करने लगे। योग्‍य अफसरों की अनदेखी होने लगी। निकम्‍मे अफसर मौज काटने लगे। ऐसे ही एक निकम्‍मे अफसर थे लेफ्टिनेंट जेनेरल बीएम कौल। बीएम कौल रिश्‍ते में जवाहर लाल नेहरू के भाई लगते थे। राम चंद्र गुहा की किताब India After Gandhi में पेज नम्‍बर ३८४ पर वे लिखते हैं कि बीएम कौल के चक्‍कर में रक्षा मंत्री मेनन और तबके सेना प्रमुख जेनेरल थिमैया के बीच जमकर जंग छिड़ गयी। अगस्‍त १९५९ में जेनेरल थिमैया और मेनन लेफ्टिनेंट जेनेरल बीएम कौल की पोस्टिंग के मुद्दे पर उलझ पड़े। बीएम कौल को उनसे सिनियर १२ अधिकारियों के ऊपर तबज्‍जो देकर पास्टिंग दी जा रही थी। सेना प्रमुख जेनेरल थिमैया ने इसका विरोध किया मगर मेनन अपनी जिद पर अड़े रहे और कौल को प्रोमोट कर दिया गया।

लेफ्टिनेंट जेनेरल बीएम कौल को युद्ध का कोई अनुभव नहीं था

सेना प्रमुख जेनेरल थिमैया को मालूम था कि बीएम कौल को युद्ध का कोई अनुभव नहीं है। बीएम कौल ने अपनी सरर्विस का बड़ा हिस्‍सा आर्मी सरर्विस कोर में ही बिताया था। लेकिन रक्षा मंत्री ने बीएम कौल को प्रोमोशन देकर चीफ ऑफ आर्मी स्‍टाफ बना दिया। तब जेनेरल थिमैया ने ३१ अगस्‍त १९५९ को प्रधान मंत्री नेहरू को अपने स्तिफे की पेशकश की । हालांकि नेहरू के मनाने पर उन्‍होंने अपना स्तिफा वापस ले लिया। उन्‍होंने बीएम कौल के बारे में नेहरू को बताया कि यह आदमी निकम्‍मा और नालायक है। यह बात ३ साल बाद सच साबित हो गयी।

बीएम कौल चीनी आक्रमण से ठीक पहले सेना को छोड़कर दिल्‍ली भाग गये

१९६२ में  जब चीन ने भारत पर हमला किया तो उसके २ दिन पहले आक्रमण की आहट पाकर लेफ्टिनेंट जेनेरल बीएम कौल ने हार्ट एटैक का नाटक किया और सरहद पर सेना को छोड़कर वे दिल्‍ली आ गये और अस्‍पताल में भर्ती हो गये। इसके ५ दिनो के अंदर ही अरूणाचल के तबांग पर चीनी सेना का पूर्ण कब्‍जा हो गया। युद्ध के बाद बीएम कौल से स्तिफा ले लिया गया।

१९५९ से लगातार होने लगी चीनी सेना की घुसपैठ

१९५९ के बाद लगातार चीनी सेना की घुसपैठ बढती जा रही थी। दूसरी तरफ भारतीय सेना की हालत बेहद खराब थी। उनके पास पहले विश्‍व युद्ध के जमाने के हथियार थे। सेना के पास अच्‍छे साजो सामान नहीं थे। उनके पास पहाड़ पर लड़ने के लायक कपड़े जूते तथा एमुनिशन नहीं थे। देश में गोला बारूद बनाने का काम मेनन के ही जिद पर रोक दिया गया था। जहां पहले गोला बारूद का निर्माण होता था वहां अब टेनिस शू और चाय के प्‍याले बनने लगे थे। मेनन ने संसद में एक बार कहा था कि हमे सेना की जरूरत ही नहीं है। उन्‍होने सेन्‍य खर्च में भारी कटौती की। जबकि उनके विदेशी दौरे का खर्च बहुत ज्‍यदा था। सेना का मनोबल गिरा हुआ था।


रक्षा मंत्री का सारा ध्‍यान सेना के अंदर राजनीति करने पर था

रक्षा मंत्री का सारा ध्‍यान सेना के अंदर राजनीति करने पर और सोवियत संध तथा चीन से अपना संबंध सुधारने और हथियार की खरीद में दलाली कमाने पर ही केंद्रित रहता था। जबकि १९६२ की लड़ाई में सोवियत संध की यह दोस्‍ती बिलकुल काम नहीं आयी। १९६२ की लड़ाई में सोवियत संध ने भारत की मदद करने से साफ मना कर दिया । उसने कहा भले ही भारत हमारा दोस्‍त है मगर चीन हमारा भाई है। हम भाई के उपर दोस्‍त को तबज्‍जो नहीं दे सकते। यही सोबियत संध जो आम दिनो में भारत को हथियार बेचता था, युद्ध के समय उसने भारत को धोखा दिया। उसने तब भारत को हथियार सप्‍लाई करना रोक दिया।

कई नेता रक्षा मंत्री मेनन के इस्तिफे की मांग कर रहे थे

राम चंद्र गुहा अपनी किताब में पेज ३८६ पर  लिखते हैं कि कांग्रेस के कई नेता रक्षा मंत्री मेनन के इस्तिफे की मांग कर रहे थे। गृह मंत्री गोबिंद बल्‍लभ पंत ने नेहरू को सलाह दी कि रक्षा मंत्री वी के मेनन एक निकम्‍मे और अक्षम आदमी हैं इनको कमसे कम रक्षा मंत्री जैसा संवेदनशील मंत्रालय नहीं दिया जाना चाहिए। कम से कम उसका विभाग तो बदल दें। मगर नेहरू ने ऐसा नहीं किया।

बी शिवाराव का नेहरू को पत्र और मेनन के इस्तिफे की मांग

एक वरिष्‍ठ पत्रकार और सांसद बी शिवाराव ने नेहरू को एक पत्र लिखा था कि मेनन को मंत्रिमंडल में रखने की आपकी जिद से मैं बेहद आहत हूं। भारत कोम्‍यूनिस्‍ट देश चीन से गंभीर खतरा झेल रहा है । आप जानते हैं कि मेनन खुद एक कोम्‍यूनिस्‍ट हैं। मैं जानता हूं कि मेनन को हटाने का फैसला लेना आपके लिए आसान नहीं होगा। लेकिन इस वक्‍त  देश के सामने एक आपात कालीन परिस्थिति है। मेनन जैसे आदमी का रक्षा मंत्री के पद पर रहना देश के लिए खतरनाक है।

नेहरू द्वारा आचार्य क्रिपलानी के साथ विश्‍वासधात

रामचंद्र गुहा आगे लिखते हैं कि नेहरू फिर भी अपनी जिद पर अड़े रहे। वे मेनन का बचाव करते रहे। मेनन को बचाने के लिए नेहरू हर हद पार कर रहे थे। उन्‍हें ना तो देश की सरहदों की चिंता थी, न तो उनको अपने उन साथियों की चिंता थी जिसकी बदौलत वे प्रधान मंत्री की कुर्सी तक पहुचे थे। उसमें एक थे महान स्‍वतंत्रता सेनानी आचार्य जी बी क्रिपलानी। 

जब इस देश में प्रधान मंत्री चुनने का फैसला हो रहा था, तो बल्‍लभ भाई पटेल कांग्रेस  की और देश की पहली पसंद थे। मगर दूसरी पसंद आचार्य जी बी क्रिपलानी थे और तीसरे नम्‍बर पर नेहरू थे। यही तीन लोग इस पद के दावेदार थे। इनके बीच बाजाप्‍ता चुनाव हुआ था। आचार्य जी बी क्रिपलानी ने नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस लेकर नेहरू को समर्थन दिया था। लेकिन नेहरू ऐहसान फरामोस निकले । मेनन को बचाने के लिए उन्‍होंने आचार्य जी बी क्रिपलानी का केरियर बरबाद कर दिया।

क्रिपलानी का संसद में मेनन के खिलाफ ऐतिहासिक भाषण

चीन हमले से लगभग डेढ साल पहले ११ अप्रैल १९६१ को आचार्य जी बी क्रिपलानी ने संसद में मेनन के खिलाफ एक ऐतिहासिक भाषण दिया। इसमें उन्‍होंने चीनी घुसपैठ को लेकर मेनन और नेहरू और उनकी नीतियों को दोषी ठहराया। आचार्य जी बी क्रिपलानी लगातार मेनन को हटाने की मुहिम चला रहे थे।  नेहरू ने उनकी एक नहीं सुनी। उल्‍टे वे आचार्य जी बी क्रिपलानी के राजनैतिक पतन के षडयंत्र में लग गये।

तभी आम चुनाव की घोषणा हो गयी। गांधीवादी आचार्य जी बी क्रिपलानी ने बिहार के सीतापढ़ी की बजाय मुंबई से मेनन के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया।  क्रिपलानी को चीन से भविष्‍य में होनेवाली संकट का अंदाजा हो गया था। उनको लग रहा था कि आने वाले चुनाव में वे मेनन को हरा कर भारत को चीन के असन्‍न संकट से बचा लेंगे।

नेहरू का मेनन को बचाने का प्‍लान

प्रधान मंत्री नेहरू ने मेनन को बचाने का एक प्‍लान बनाया । चुनाव से ठीक २ महीने पहले १८ दिसम्‍बर १९५९ को भारत की सेना धड़धड़ाती हुयी गोआ में घुस गयी। ४८ धंटे की लड़ाई में भारत की सेना ने गोआ को पूर्तगाली गुलामी से आजाद करवा लिया।  अचानक हुए इस हमले से सब हैरान रह गये। १९४७ के बाद से ही गोआ को आजाद कराने की मांग उठती रही थी। मगर नेहरू हमेशा इसकी अनदेखी करते आ रहे थे। फिर अचानक ऐसा क्‍या हुआ कि १९६१ में नेहरू को गोआ कि इतनी चिंता हो गयी?

दरअसल नेहरू गोआ में मिलिटरी एक्‍शन लेकर मेनन के लिए चुनावी लाभ लेना चाहते थे। राम चंद्र गुआ अपनी किताब India After Gandhi में पेज नम्‍बर ४०७ पर लिखते हैं कि गोआ के औपरेशन विजय को नेहरू मेनन के पक्ष में भजाना चाहते थे। और ऐसा करने में वे सफल भी रहे। उस समय न्‍यूआर्क टाइम्‍स ने लिखा कि रक्षा मंत्री दो दो अभियान संचालित कर रहे थे। एक गोआ का औपरेशन विजय अभियान और दूसरा १९६२ में होनेवाले आम चुनाव का अभियान। 

गोआ अभियान से पहले मुंबई में मेनन का चुनाव हारना तय था

गोआ के अभियान से पहले मुंबई में मेनन का चुनाव हारना तय था। लेकिन नेहरू की चाल ने पूरा खेल पलट दिया। मुंबई में गोआ की गुलामी एक ज्‍वलंत मुद्दा था। मराठी समाज पूर्तगाली शासन के हमेशा से खिलाफ था। मराठी समाज पूर्तगाली शासन के अत्‍याचार का सबसे बड़ा शिकार हुआ करता था। पूरा महाराष्‍ट्र में गोआ की आजादी के लिए आवाज उठती रहती थी। उधर नेहरू ने गोआ में सैनिक ऑपरेशन और विजय को मेनन के  पक्ष में पूरी बेशर्मी के साथ भुनाया।

नेहरू ने मेनन की चुनौती को अपनी चुनौती माना

प्रधान मंत्री नेहरू ने मेनन को पेश की गयी चुनौती को अपनी चुनौती मान लिया था। वे प्रचार के दरम्‍यान देश भर में मेनन के समर्थन में बयान दे रहे थे। सांगली, पूना, बड़ौदा में उन्‍होंने कहा था कि मेनन की हार उनकी समाजवादी और गुट निरपेक्षतावादी नीतियों की  हार होगी। India After Gandhi में गुहा  लिखते हैं कि गोआ की आजादी से भी मेनन को बहुत लाभ मिला। मुबई जो मेनन का निर्वाचन क्षेत्र था, के लोग गोआ की आजादी से काफी खुश हुए थे। मेनन को अपने आका यानी नेहरू के समर्थन से और भी मदद मिली।

नेहरू की एक और घिनौनी चाल, दिलिप कुमार को मोहरा बनाया  

इस चुनाव में मेनन को जिताने और क्रिपलानी को हराने के लिए नेहरू ने एक और घिनौनी चाल चली। उन्‍होंने उस समय के सुपर स्‍टार दिलिप कुमार को मोहरा बनाया। नेहरू ने दिलिप कुमार को कहा कि वे मेनन के पक्ष में रैलियां करें। दिलिप कुमार ने अपनी आत्‍म कथा वजूद और परछाई में इसका विस्‍तार से जिक्र किया है। उन्‍होंने लिखा है कि प्रधान मंत्री नेहरू ने उन्‍हें खुद फोन करके कहा था कि वे जूहू स्थित मेनन के चुनाव कार्यालय जाकर उनसे मिले और उनके लिए चुनाव में रैलियां करें। श्री कुमार ने ऐसा किया भी। और इसका पूरा लाभ मेनन को मिला। दिलिप कुमार ने मेनन के लिए कई भाषण दिये। और मेनन चुनाव जीत गये। आचार्य जी बी क्रिपलानी चुनाव हार गये।

नेहरू ने अटल बिहारी वाजपेयी की भी बलि ली

नेहरू ने अटल बिहारी वाजपेयी की भी बलि ली। वाजपेयी नेहरू की चीनी नीति का विरोध कर रहे थे । वे मेनन के खिलाफ जबरदस्‍त हमला कर रहे थे।  बलराम पुर से  अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव हराने के लिए नेहरू  ने बलराज साहनी को वहां चुनाव प्रचार के लिए भेज दिया और अटल बिहारी वाजपेयी २०५२ वोटों से चुनाव हार गये। लोकतंत्र में फिल्‍मी सितारे का इस्‍तेमाल सबसे पहले लोकतंत्र के भक्षक नेहरू ने किया था। उसके बाद तो यह रिवाज बन गया।

इसी के साथ १९६२ के युद्ध में भारत की हार की तकदीर भी नेहरू ने लिख दी

इस तरह साम, दाम, दंड, भेद का इस्‍तेमाल कर नेहरू ने मेनन को तो जिता दिया मगर इसी जीत के साथ ही आगामी १९६२ के भारत चीन युद्ध में भारत की हार की तकदीर भी नेहरू ने लिख दी।  जितना दिमाग नेहरू ने  मेनन को जिताने में गलाया, काश उसका आधा भी उन्‍होंने अपनी चायना पौलीसी में लगा लिया होता तो  हम उस यद्ध में विजयी हो सकते थे। दरअसल हमारी सेना तो कमजोर नहीं थी। हमारा नेतृत्‍व कमजोर और निकम्‍मा था। नेहरू और मेनन दोनो अैयास आदमी थे और अदूरदर्शी थे। वे देश हित की तुलना में नीजी फायदों का ज्‍यादा ध्‍यान रखते थे। अगर उनकी नीतियां सही होतीं तो आज हमारी सरहदों पर चीनी सैनिक हमारे सैनिकों के साथ खून की होली नहीं खेल रहे होते।

सेना प्रमुख पीएन थापर की भी बलि ले ली


१९६२ के भारत चीन युद्ध में भारत की हार के बाद भी नेहरू मेनन को बचाते रहे। यहां तक कि उन्‍होंने   मेनन को बचाने के लिए सेना प्रमुख पीएन थापर की भी बलि ले ली। यह बात प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी आत्‍म कथा एक जिंदगी काफी नहीं के पेज १५० पर लिखा है कि जब बोमडीला की चौकियां भी भारत के हाथ से निकल गयी, तो जेनेरल थापर नेहरू से मिलने गये। उन्‍होंने भारतीय सेना के महान मर्यादा का पालन करते हुए हार की जिम्‍मेवारी अपने ऊपर ली और अपना रेजीगनेशन पेश कर दिया। उस दिन नेहरू के चेहरे पर बहुत दिनो बाद मुस्‍कुराहट आयी। उन्‍होंने जेनेरल थापर से कहा इममें तुम्‍हारी कोई गलती नहीं है। तुम मुझसे कल आकर मिलो। अगले दिन सुबह जेनेरल थापर नेहरू से मिलने पहुचे तो नेहरू ने उनसे कहा कि तुम्‍हें याद है कि तुमने  मुझसे कल रात  इस्तिफे की पेशकश की थी । हमे तुम्‍हारा इिस्‍तफा लिखित में चाहिए। जेनरल थापर ने अपना लिखित इस्तिफा नेहरू को सौंप दिया। यद्यपि इस हार के लिए जेनरल थापर की कोई गलती नहीं थी। संसद में लोग स्‍वयं नेहरू की और रक्षा मंत्री का इस्तिफा मांग रहे थे।

कुलदीप नैयर आगे लिखते हैं कि मैंने लोक सभा में नेहरू को जेनरल थापर का इस्तिफा लहराते देखा। संसद में नेहरू ने झूठ बोला कि इस हार के लिए जेनरल थापर जिम्‍मेवाार थे और इस बात को उन्‍होंने स्‍वीकार भी कर लिया है। उन्‍होंने मुझे अपना स्तिफा सौंप दिया है। इससे नेहरू पर सांसदों का गुस्‍सा कम करने में मदद तो मिली। मगर यह नेहरू की कमीनापन का हद था। उसने मेनन का कोई नुकसान नहीं होने दिया। नेहरू ने मेनन को रक्षा मंत्रालय से रक्षा उत्‍पादन मंत्रालय में ट्रांसफर कर दिया। मेनन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह आगे भी मौज काटता रहा।

नेहरू और मेनन की यह दोस्‍ती हर किसी के समझ से परे

नेहरू और मेनन की यह दोस्‍ती हर किसी के समझ से परे था । नटवर सिंह ने अपनी आत्‍मकथा One Life Is Not Enough में नेहरू की चाइना पॉलिसी को बिना किसी विचार की नीति अर्थात विचारहीन नीति बताया है।

कांग्रेस के एक वरिष्‍ठ नेता जय राम रमेश ने वी के मेनन पर ७२५ पन्‍ने की एक किताब लिखी है। इसका नाम है A Chequered Brilliance । इस किताब के मुताबिक नेहरू और मेनन के बीच बेहद करीबी, बेहद घनिष्‍ट रिश्‍ता था। उन दोनो के एक ही जैसे चरित्र थे, एक जैसी रूचि थी। दोनो की लाइफ स्‍टाइल और मानसिक स्थिति में भी बहुत समानता थी। मेरा अपना अंदाजा यह है कि दोनो के बीच कुछ ऐसा जरूर था जो एक नौरमल आदमी नहीं समझ सकता। 

नेहरू नालायक प्रधन मंत्री और मेनन नालायक रक्षा थे

न तो नेहरू प्रधन मंत्री के लायक सही आदमी थे, न मेनन रक्षा मंत्री के लायक सही आदमी थे। ये दोनो आदमी बेहद नीच प्रकृति और प्रवृत्ति के आदमी थे। एक पतित आदमी में जो भी दुर्गुण हो सकते हैं वे सभी इन दोना आदमी में मौजूद थे। इस देश का शायद  भाग्‍य ही खराब था गांधी ने नेहरू को जबरदस्‍ती प्रधान मंत्री बनवा दिया और नेहरू ने मेनन को जबरदस्‍ती रक्षा मंत्री बनवाया और मेनन ने बीएम कौल को जबरदस्‍ती प्रमोशन देकर सेना को लेफ्टिनेंट जेनेरल बनाया और अंत में इन सब लोंगों की गलती और अयोग्‍यता के लिए भारत माता ने १९६२ में अपने सपूतों का बलिदान देकर चुकाया। और आगे भी तो हम चुका ही रहे हैं।

जब भी अयोग्‍य लोगों को कुर्सी मिल जाती है तो उसका यही नुकसान होता है। काश बल्‍लभ भाई पटेल भारत के प्रधान मंत्री होते तो हालात बिलकुल दूसरा होता। वे वास्‍तव में प्रधान मंत्री के लिए चुन भी लिए गये थे। इस चुनाव में सरदार पटेल को १५ में से १२ वोट मिले थे। आचार्य क्रिपलानी को २ वोट मिले नेहरू को एक भी वोट नहीं मिले थे। इस चुनाव में बिहरा का प्रति‍नीधि अनुपस्थित था।  उन्‍हें पार्टी के भीतर कोई पसंद नहीं करता था। मगर महात्‍मा गांधी की जिद के कारण पटेल साहब को जीत के बाद भी यह पद विड्रौ करना पड़ा।

हम नेहरू और मेनन के नालायकी का नुकसान आज भी झेल रहे हैं

बहरहाल नेहरू और मेनन दोनो धूर्त, कृतघ्‍न, मौका परस्‍त, आत्‍म केंद्रित, तो थे ही । उनकी आदते भी एक जैसी थी। शराब, सिगरेट और औरतबाजी के शौकीन दोनो थे। हो सकता है कि दोनो के बीच कुछ ऐसे भी राज हों जिसे दुनिया आज तक नहीं जान सकी। उन दोनो के मौत के साथ उनके राज भी दफ्न हो गये। ऐसा भी हो सकता है कि उन दोनो  के बीच कुछ अनैतिक संबंध रहे हों और नेहरू को उसके सार्वजनिक होने का डर सता रहा हो। यह तो सावित हो चुका है कि ये दोनो ही परभर्टेड आदमी थे। नेहरू अंतत: सेक्‍स डिजीज से मरे थे। 
मगर इतना तो तय है कि इन दोनो ने अपने नीजी हितों के लिए जो देश का भारी नुकसान किया। उसकी भरपायी हम आज तक कर रहे है। और न जाने हम भारतवासियों को आगे भी कितना चुकाना पड़ेगा? 

विनोद सिंह

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