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चीनी सीमा विवाद का बीज बोया अंग्रेजों ने और सींचा नेहरू ने


Jawahar Lal Nehru
Jawahar Lal Nehru


आज जो चीन के साथ लद्दाख और पूर्बी चाइना सीमा पर हमारा सीमा विवाद है, उसका बीज अंग्रेजी हुकूमत ने बोया था। मगर उसको सींचा जवाहर लाल नेहरू ने। वह जख्‍म आज नासूर बन गया है। और उसकी कीमत हमारे जवान अपनी जान देकर चुका रहे हैं।

आज चीन अपनी शैन्‍य और आर्थिक शक्ति के नशे में चूर है

आज विस्‍तारवादी चीन अपनी शैन्‍य शक्ति और अपनी आर्थिक शक्ति के नशे में चूर है। आज चीन मात्र भारत को ही नहीं बल्कि अमेरिका को, यूरोपीय यूनियन को, ऑस्‍ट्रेलिया को, जापान को, दक्षिण कोरिया को, वियतनाम को, इंडोनेसिया को, फिलिपिंस को, कम्‍बोडिया को, लाओस को और तमाम परोसियों को, बल्कि पूरी दुनिया को, एक साथ संदेश दे रहा है कि मैं आज की तारीख में दुनियां की सबसे ताकतवर मुल्‍क हूं। मैं ही दुनिया का नया चौधरी हूं।

चीन के साथ हमारे सीमा विवाद का श्रोत


चीन के साथ हमारा सीमा विवाद का श्रोत हमारे इतिहास में है। भारत में जब अंग्रेजों का शासन था, तो उन्‍होंने हमारे विहाफ पर पड़ोस के देशों के साथ सीमा समझौते किए। लद्दाख के विवाद की बुनियादी जिम्‍मेवारी जॉनसन नामक एक सर्वे ऑफ इंडिया के अंग्रेज अधिकारी की बनती है। उसके रिपोर्ट के पश्‍चात उसे क्विन ऑफ इंगलैंड ने नौकरी से निकाल दिया था। फिर डोगरा राजा गुलाब सिंह ने उन्‍हें नौकरी पर रख लिया। अक्‍साई चीन और लद्दाख का विवाद  जॉनसन हमे देकर गया। इसी तरह मैकमोहन हमे अरूणाचल प्रदेश में विवाद देकर गया।

भारत ने १५ अगस्‍त १९४७ में ट्रांस्‍फर और पावर करके गलती की

भारत ने सबसे बड़ी गलती यह की कि उसने १५ अगस्‍त १९४७ में ट्रांस्‍फर और पावर किया। हमारे बाजू में बर्मा था उसने ब्रिटेन को मजबूर किया कि वह ट्रांसफर ऑफ पावर नहीं करेगा। उसने अंग्रेजों को रेलिंक्विस ऑफ पावर के लिए मजबूर कर दिया। ट्रांसफर ऑफ पावर तथा रेलिंक्विस ऑफ पावर, इन दो बातों में जमीन आसमान का फर्क है। जब आप ट्रांसफर ऑफ पावर का एग्रीमेंट साइन करते हैं तो आप अंग्रेजी सत्‍ता को कानूनी, जायज और लेजिटिमेट मान लेते  हैं। और जब आप रेलिंक्विस ऑफ पावर का एग्रीमेंट साइन करते हैं तो आप यह संदेश देते हैं कि अंग्रेजी सत्‍ता गैरकानूनी थी, नाजायज थी, इलिजिटिमेट थी।
एक उदाहरण यह है कि अंग्रेज सुभाष चंद्र बोस जैसे वीर महापुरुष  और राष्‍ट्र के सपूत को आतंकवादी और वार क्रिमिनल घोषित करता है और आज भी भारत के आरकाइव में जो डकूमेंट हैं वह यही स्‍वीकार करता है । १८५७ की पहली वार ऑफ फ्रीडम को आज भी हम म्‍यूटीनी के रूप में इतिहास की किताबों में उल्‍लेख करते हैं।

ट्रांसफर ऑफ पावर के कारण अंग्रेजों की ट्रीटी हम पर लागू हो गयी

हमने अंग्रेजों से ट्रांसफर ऑफ पावर की, उनकी सत्‍ता को लेजिटिमेट करार दिया, अंग्रेजों की ट्रीटी भी हम पर लागू हो गयी। जाहिर है कि हम पर जॉनसन की ट्रीटी और मैकमोहन की ट्रीटी भी लागू हो गयी।

१९१४ की शिमला में ब्रिटेन, चाइना और तिब्‍बत ट्रीटी

१९१४ में शिमला में ब्रिटेन, चाइना और तिब्‍बत के बीच एक मिटिंग बुलाई जाती है। इसमें एक औटोनोमस स्‍टेट के रूप में तिब्‍बत का चीन के निगेबानी में मगर एक आजाद मुल्‍क के रूप में भविष्‍य तय होना था। चाइना उसमें सिरकत नहीं करता है। इसमें ब्रिटेन एकतरफा फैसला करता है। वह तिब्‍बत के तीन चौथाई भाग को औटोनोमस मानता है। और इस्‍टर्न तिब्‍बत जो अरुणाचल के उत्‍तर में पड़ता है उसे अपने अधीन कर लेता है। यह पूरा इलाका आजादी के बाद भारत को मिलता है।

सन् १९४९ में चीन में सत्‍ता परिवर्तन होता है

सन्‍ १९४९ में चीन में सत्‍ता परिवर्तन होता है। माओत्‍से तुंग के नूतृत्‍व में कोम्‍यूनिस्‍ट पार्टी सत्‍ता में आती है। अमेरिका सहित दुनिया के तमाम लोकतात्रिक देश उसे मान्‍यता तक नहीं देता है सिवाय भारत के। चीन सन्‍ १९५० में तिब्‍बत पर आक्रमण कर देता है। भारत और रूस के सिवा कोई उसका समर्थन नहीं करता है।

१९४७ में अंग्रेज तिब्‍बत का हिस्‍सा भारत को देकर जाते हैं

१९४७ में जब हम आजाद होते हैं तो अंग्रेज अरुणाचल प्रदेश के ऊपर अर्थात उत्‍तर के तिब्‍बत का हिस्‍सा भारत को देकर जाते हैं। उस प्रदेश के दो शहर यतैंक और गनैनटे में इंडियन आर्मी की गैरीशन मौजूद होती है। तिब्‍बत का पोस्‍ट और टेलीग्राफ सिस्‍टम भी भारत के अधीन होता है। इसके अतिरिक्‍त तिब्‍बत के और कई विभाग जो भारत के अधीन होते हैं उनका मुख्‍यालय इन शहरों में था।

तिब्‍बत का इलाका जो भारत के अधीन था, उसे नेहरू चीन को भेंट कर दिया

चीन ने जब तिब्‍बत पर कब्‍जा कर किया तो अमेरिका सहित दुनिया की सभी डेमोक्रेटिक तकतों ने इस आक्रमण और अवैध कब्‍जे का विराध किया मगर जवाहर लाल नेहरू पहले आदमी थे जिसने इसका समर्थन किया। और तो और, तिब्‍बत का वो इलाका जो अरूणाचल के उत्‍तर में पड़ता था और भारत के अधीन था, उसे थाली में परोस कर नेहरू चीन को भेंट कर देते हैं। गृह मंत्री सरदार पटेल नेहरू को ऐसा करने से रोकते हैं मगर नेहरू अनसूनी करते हैं। इसी के कारण चीन भारत और नेपाल की सीमा तक आ जाता है। उस समय थलसेना के प्रमुख जेनेरल करियप्‍पा ने भी जवाहर लाल नेहरू से आकर अपील की कि कम से कम तिब्‍बत का वह इलाका जो अंग्रेज हमे सोंप गये हैं, वह तो हम अपने पास रखें। जवाहर लाल नेहरू ने उनकी भी अनसूनी की।  

नेपाल की आपत्ति  और भारत से उसका मोहभंग

नेपाल इस बात पर आपत्ति करता है। वह  जवाहर लाल नेहरू से शिकायत करता है। जवाहर लाल नेहरू नेपाल को पीठ दिखा देते हैं और चीन के साथ हाथ मिला लेते हैं। तिब्‍बत जो चाइना और भारत तथा नेपाल के बीच एक बफर जोन था, वो चीन के हाथ में चला जाता है। अब नेपाल को लगता है कि भारत पर भरोसा करना हाणिकारक होगा। वह आने वाले वक्‍त में चीन की तरफ देखना शुरू कर देता है।

चीनी सेना के लिए नेहरू ने राशन पानी का इंतजाम किया


चीन की पिपल्‍स लिबरेशन आर्मी जब तिब्‍बत में पहुची, उसने वहां नरसंहार किया तो जवाहर लाल नेहरू ने उसका समर्थन किया। इतना ही नहीं, चीनी सेना पीएलए के लिए जवाहर लाल नेहरू ने राशन  पानी चावल दाल का इंतजाम किया।
हमारे चीन से जो भी सीमा विवाद है उसे जवाहर लाल नेहरू ने हमेशा नजरअंदाज किया। और बिना शर्त यह मान्‍यता दिया कि तिब्‍बत चीन का ही है। उन्‍होंने चीन में माओ की सरकार को भी मान्‍यता दिया जबकि वर्ल्‍ड सेंटिमेंट इसके विपरीत था।

लासा में हमारे काउंसलेट को नेहरू ने बंद करवाया

इससे पूर्व तक लासा में हमारा एक काउंसलेट था उसे जवाहर लाल नेहरू बंद करवा देते हैं। वो एक ऐसा समय था जब हम लद्दाख से अरूणाचल तक के सीमा विवादों पर चीन से कोई फाइनल ट्रीटी कर सकते थे। उससे सौदा कर सकते थे। जवाहर लाल नेहरू ने उसे नजरअंदाज किया। वे कहते थे कि चीन और भारत हमेशा भाई भाई की तरह रहेंगे। हम सीमा विवाद तो कभी भी तय कर लेंगे। मगर उन्‍होंने इस तरफ कभी रूचि नहीं दिखायी।

बल्‍लभ भाई पटेल की चेतावनी को नेहरू ने अनसूनी की

बल्‍लभ भाई पटेल ने नेहरू को चेतावनी दी कि तिब्‍बत चीन का नहीं है। इस लड़ाई में हमे चीन का नहीं बल्कि तिब्‍बत का साथ देना चाहिए। यदि भारत और चीन के बीच तिब्‍बत एक बफर स्‍टेट रहता है तो यह हमारे लिए स्‍ट्रैटेजीकली ज्‍यादा सेफ है। उन्‍होंने कहा तिब्‍बत सदियों से एक स्‍वतंत्र प्रदेश है। उसका स्‍वतंत्र रहना ही भारत के हित में है। उन्‍होंने कहा कि चीन भरोसेमंद देश नहीं है। मगर नेहरू ने अनसूनी की।

जेनेरल करियप्‍पा की चेतावनी को नेहरू ने अनसूनी की

जेनेरल करियप्‍पा ने कहा कि अब तिब्‍बत का बफर जोन खत्‍म हो गया है। हमें चाइना से इस क्षेत्र में एटैक हो सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने जेनेरल को यह कहा कि अंतराष्‍ट्रीय संबंधों की हमें आपसे बेहतर समझ है, आप अपने काम से काम रखें। फिर सरदार पटेल भी आपत्ति करते हैं और इस खतरे से उन्‍हें आगाह करते है तो जवाहर लाल नेहरू ने चीन सीमा पर बार्डर सुरक्षा व्‍यवस्‍था पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक कमीशन गठित करते हैं। यह कमीशन दरअसल पटेल साहब की अनसूनी करने के लिए बहाना भर था। ऐसा दिखाने भर के लिए कि हम इस बात को गम्‍भीरता से लेते हैं । सरदार पटेल के निधन के बाद इस कमीशन का काम भी रोक दिया गया।

सन् १९५४ में अगले ८ सालों के लिए पंचशील समझौता

सन् १९५४ में जवाहर लाल नेहरू चीन जाते हैं। वे चीन के साथ अगले ८ सालों के लिए पंचशील समझौता करते हैं। उसके बाद जवाहर लाल नेहरू भूल जाते है कि चीन के साथ उनका कोई सीमा विवाद भी है। वे चीन से जुड़े लद्दाख और अरुणाचल के सीमा विवाद को भी भूल जाते हैं।

नेहरू दलाई लामा को भारत में एसाइलम दे देते हैं

सन्‍ १९५९  में तिब्‍बत में चीन के जूर्म के खिलाफ विद्रोह खड़ा होता है। जवाहर लाल नेहरू दलाई लामा को भारत में एसाइलम दे देते हैं। सोचिए, पहले आप चीन का तिब्‍बत पर कब्‍जा को मान्‍यता देते हैं। चीन को तिब्‍बत का वह भाग जो भारत का है वह आप गिफ्ट करते हैं। मानो वह आप के पूज्‍य पिताजी का है। सन् १९५४ में पंचशील के आपसी संधि पर आप हस्‍ताक्षर करते हैं। लेकिन दलाई लामा को भारत में संरक्षण भी दे देते हैं। दलाई लामा भारत में बैठ कर, भारत को बतौर लौंचिंग पैड इस्‍तेमाल करके चीन के विरुद्ध अपनी लड़ाई लड़ते हैं। और भारत से चीन के विरुद्ध बयान जारी करते हैं।
हे महा प्रभू, महा महिम श्री जवाहर लाल नेहरू ! हद्द हैं आप ! या तो चीन को मान्‍याता देते ही नहीं, और उसी समय चीन से दो दो हाथ करते, या चीन से उस समय अपनी शर्तों पर  समझौता करते, क्‍योंकि उस समय भारतीय सेना के सामने माओ की सेना काफी कमजोड़ थी, कुछ और न करते तो कम से कम मानसरोबर और अरुणाचल ही अपने हिस्‍से में ले आते। या फिर सन्‍ १९५९ में दलाई लामा को एसाइलम नहीं देते।

नेहरू की बेवकूफी, अदूरदर्शिता, कंफ्यूजन, और ऐरोगेंस

मैं एसाइलम के खिलाफ नहीं हूं। भारत ने दुनिया के प्रताडित कोमों को एसाइलम दिया है फिर दलाई लामा को क्‍यों नहीं दिया जाय । मैरा विरोध जवाहर लाल नेहरू के बेवकूफी से है, उनकी अदूरदर्शिता से है, उनके कंफ्यूजन से है, उनके ऐरोगेंस से है। उन्‍हें हर बार सचेत किया गया । मगर उन्‍होंने किसी की नहीं सुनी।

चीन का लगातार अतिक्रमण और नेहरू की अनदेखी


तिब्‍बत पर विजय के बाद चीन लगातार कुछ किलो मीटर भारतीय सीमा की तरफ आगे बढकर सड़कें बना लेता था। यह उसकी रेगुलर प्रैक्टिस हो गयी। नेहरू इसकी अनदेखी करते रहे।

नेहरू और बीएम कौल की फौरवार्ड पोलीसी

सन्‍ १९६० में जेनेरल बृज मोहन कौल जो जवाहर लाल नेहरू के मित्र भी थे और जिनको सिनियरीटी में पीछे होने के बावजूद जवाहर लाल नेहरू ने जेनेरल बनाया था ने जवाहर लाल को फौरवार्ड पोलीसी के रणनीति की राय दी और जवाहर लाल नेहरू ने उसे फौरन मान भी लिया। उस नीति के अनुसार भारतीय सेना को आदेश मिला कि वह चीन में जहां तक घुस सकते हों वहां तक घुस कर अपनी चौकियां बना डालो। सेना के तमाम अन्‍य अधिकारी इसके खिलाफ थे। वे जवाहर लाल नेहरू को एडवाइस करते हैं कि पभु, हमारी तैयारी इसके अनुकूल नहीं है। हमारी सड़के बोर्डर पर तैयार नहीं हैं। युद्ध की स्थिति में हमारी सप्‍लाई लाइन ही नहीं हैं। फौज को युद्ध की स्थिति में हम रसद पानी और हथियार नहीं पहुचा पाएंगे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने किसी की नहीं सुनी सिवाय बीएम कौल के। वे दोनो यह दलील देते रहे कि चीन कोई प्रतिक्रिया ही नहीं करेगा।  फिर जो १९६२ में हुआ उसे हम भारत चीन युद्ध के रूप में जानते हैं। उस युद्ध में चीन ने भारत को इस कदर शिकस्‍त दी जिसे भारत के इतिहास में सबसे शर्मनाक हार माना जाता है।

सन्‍ १९६२ में चीन पंचशील को रद्द कर देता है और भारत पर आक्रमण कर देता है। इस युद्ध में भारत की सेना की भीषण क्षति हुयी। इसमें हमारे 1,383 सैनिक शहीद हो गये।  हमारे 1,047 सैनिक घायल हो गये। हमारे 1,696 सैनिक लापता हो गये। हमारे 3,968 सैनिकों को बंदी बना लिया गया ।इसके विपरीत चीन के मात्र 722  सैनिक मारे गये और 1,697 सैनिक घायल हुए।

आज नरेंद्र मोदी नेहरू के कुकर्मो का फल भोग रहे हैं

क्‍या अब भी आपको नहीं लगता कि आज नरेंद्र मोदी पंडित जवाहर लाल नेहरू के कुकर्मो का फल भोग रहे हैं?

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