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Myanmar excludes Muslims from the election process

 

Aung San Suu Kyi


म्‍यानमार में जो चुनाव हुआ वो दुनिया के लिए एक नजीर पेश करता है। भारत को इससे सबक सीखने की जरूरत है। उसने अल्‍पसंख्‍यकों, जिसमें विशेषकर राहिंगिया मुसलमान आते हैं, को चुनाव में भाग लेने से मना कर दिया। वे देश में रह तो सकते हैं मगर ना चुनाव में वोट दे सकते हैं और ना तो कैंडिडेट बन सकते हैं।

 

आतंकवाद के इस दौर में धार्मिक असहिष्‍णुता के चलते अनेक धर्मालंबियों की एथनिक क्लिंचिंग की जा रही है। इस्‍लामिक टेररिज्‍म के कारण आज पूरी दुनियां में आतंक का बोलबाला है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंगलैंड, फ्रांस, नौर्वे, स्‍वीडन, फीनलैंड, जर्मनी, ऑस्‍ट्रिया, हंगरी, भारत सहित न जाने कितने देश हैं जो आतंकवाद से परेशान हैं।

 

मात्र चीन इसका अपवाद है। क्‍यों अपवाद है इस पर हम बाद में बात करेंगे। बांकी दुनिया के वे सारे देश जहां मुसलमानों को शरण मिली वे देश इस्‍लामी आंतकवाद के कारण मुश्‍किल दौर से गुजर रहे हैं।

 

लोकतांत्रिक देशों का यह हाल है कि उसमें अनेक पार्टियां मुस्‍लिम तुष्‍टीकरण की रणनीति अपनाते हैं, क्‍योंकि मुसलमानो का वोट उन्‍हें एक मुस्‍त प्राप्‍त होता है।

मुसलमान किसी राष्‍ट्रीयता में विश्‍वास नहीं करते हैं। वे उम्‍मा के कानसेप्‍ट को मानते हैं। उनका भाइचारा दूसरे धर्मावलम्बियों से नहीं होता मगर मंगल ग्रह पर कोई दूसरा मुसलमान रहता है तो वह उनका भाई है। यही उन्‍होंने सीखा है। वे इतने असहिष्‍णु हैं कि इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहते कि उनके धर्म में क्‍या कमी है, किस सुधार की जरूरत है, यदि उन्‍हें दूसरे काम्‍यूनिटी के साथ रहना है।

म्‍यानमार ने इसका रास्‍ता निकाल लिया

 

म्‍यानमार में २०२० का जो चुनाव हुआ, वह पूरी दुनिया के लिए एक नजीर है, एक एलेस्‍ट्रेशन है, भारतवर्ष के लिए भी एक एलेस्‍ट्रेशन है। उस चुनाव में क्‍या हुआ?

 

२०१२ तक म्‍यानमार में डेमोक्रेसी नहीं थी। तब वहां मिलिट्री शासन हुआ करता था। डेमोक्रेसी स्‍थापित करने के लिए आंग सांग सूची (नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी)  ने एक लंबी लड़ाई लड़ी। उनकी उम्र आज ४७ साल है। इसका अधिकांश उन्‍होंने जेल में गुजारे। २०१५ में पहला  चुनाव हुआ था। मगर चुनाव में वहां के अल्‍पसंख्‍यक ने अशांति फैलाई थी।

२०१५ के चुनाव के बाद यह २०२० में म्‍यानमार में दूसरा चुनाव हुआ। इसमें आंग सांग सू ची की पार्टी मैजोरि‍टी लेकर आयी। उनको जीत के लिए ३२२ सीटों की जरूरत होती है। ३४२ सीटों उन्‍हें घोषित रूप से मिल चुके हैं। अनौपचारिक रूप से कहा जा रहा है कि उनको ३९६ सीटें मिलेंगी।  

म्‍यानमार ने मुसलमानों को चुनाव प्रकिया से बाहर कर दिया

इस चुनाव से अल जजीरा जैसे चैनेल और मुस्‍लिम देशों के अन्‍य चैनेलों ने भारी ऑब्‍जेक्‍शन लगाया है। उन्‍होंने इस चुनाव को मानने से मना कर दिया है। क्‍या कारण है कि उन्‍होंने इस चुनाव को मानने से मना कर दिया है? असल में एक एडमिनिस्‍ट्रेटिव मेजर लेते हुए, म्‍यानमार ने एक नया प्रयोग किया। उन्‍होंने १५ लाख माइनोरिटीज को चुनाव में पार्टिसिपेट करने से मना कर दिया। इसमें अपोजिशन पार्टियों ने भी उनका साथ दिया और मिलिट्री ने भी समर्थन किया। एक आम सहमति बनी। म्‍यानमार में कुल ४ करोड़ वोटर होते हैं। उन्‍होंने अपने पिछले अनुभव के आधार पर पाया कि चुनाव में यही १५ लाख लोग गड़बड़ी फैलाते हैं।

 

राखिन प्रांत के अंदर रोहिंगिया ने यह कहते हुए कि यहां हम ही बहुसंख्‍यक आवादी है, बौद्ध मठों के ऊपर हमले कर दिए थे। उन्‍होंने बड़े पैमाने पर  बौद्धों को परेशान करना शुरू कर दिया था। प्रांत भर के बौद्धों को जब लगा कि पानी सर से ऊपर जा चुका है तो उनके सब्र का बांध टूट गया।  उन्‍होंने रिटेलिएशन में मुसलमानों का वो हाल कर दिया कि उनको देश छोड़ कर भागना पड़ा।

 

२०२० का जो चुनाव हुआ उसमें उन सभी माइनोरिटिज जिनकी दंगों में भूमिका थी उन्‍हें मताधिकार से बंचित कर दिया। उनको डेमोक्रेटिक सिस्‍टम से ही बाहर कर दिया। इसका यह असर हुआ कि चुनाव शांतिपूण तरीके से संपन्‍न हुआ।    

रोहिंगिया आसमानी किताब को संविधान के ऊपर मानते थे

म्‍यानमार में भी मुसलमानो का यही रवैया था कि वे आसमानी किताब को संविधान के ऊपर मानते थे। म्‍यानमार के लोगों ने एकमत से तय किय कि जो संविधान को स्विकार नहीं करते उसे देश का नागरिक नहीं माना जाय।

 

रोहिंगिया मुसलमानों को आम लोगों ने भगाना शुरू किया। बचाखुचा काम सेना ने पूरा कर दिया। उनको अपनी हरकत की सजा मिल गयी। वे वहां से भाग कर बंगलादेश और भारत में शरण के लिए आए। वे आज भारत के लिए भी समस्‍या हैं। वे पूरे देश में जहां तहां रह रहे हैं। उन्‍होंने जम्‍मू के एक बड़े हिस्‍से पर कब्‍जा कर रखा है। भारत रोहिंगिया के लिए एक गैर कानूनी शरणास्‍थली बन चुका है।

 

भारत सरकार से म्‍यानमार की जो बात हुयी उसमें म्‍यानमार सरकार रोहिंगिया को वापस लेने के लिए तैयार है। शर्त यह है कि उन्‍हें वोटिंग के प्रोसेस में शामिल नहीं किया जाएगा। उनका कहना है कि आप हमारे संविधान को नहीं मानते हैं। हमारी सा‍माजिक, सांस्‍कृतिक और राजनैतिक व्‍यवस्‍था को नहीं मानते हैं। आप मानते हैं कि हमारी व्‍यवस्‍था से उपर वो आसमानी किताब है। आप इस्‍लामी चरमपंथ फैलाते हैं। आप यहां प्रिवेल करना चाहते हैं। आपको लगता है जहां आप मैजोरिटी में हैं वहां दूसरे लोग दूसरे दर्जे का नागरिक बनकर रहें। आपको लगता है कि आप मुसलामानो का यह फंडामेंटल राइट है। तो हम आपको सत्‍ता परिवर्तन के किसी प्रकिया में शामिल ही नहीं होने देंगे।

अब मुस्लिम संगठनों ने चिल्‍लाना शुरू कर दिया है

अब संसार भर के मुस्लिम संगठनों ने चिल्‍लाना शुरू कर दिया है। मगर मेरा मानना यह है कि म्‍यानमार सरकार और जनता का यह तर्क सही है। उनका तर्क यह है कि जो देश के सामाजिक सांस्‍कृतिक राजनैतिक व्‍यवस्‍था को बाधित करेगा उसको चुनाव की प्रकृया से बाहर कर देंगे। उसको वोट नहीं डालने देंगे। म्‍यानमार का मानना यह है कि जो डिस्‍टर्बिंग कौम्‍यूनीटी है उसे हम चुनाव प्रकिया से ही बाहर कर देंगे।

पूरे संसार के लिए सबक

पूरे संसार को इससे सबक लेना चाहिए। यदि कोई कोम्‍यूनिटी एथनिकली चुनाव प्रकिया को डील करता है तो वह पजातंत्र के लिए अनुपयुक्‍त है। राष्‍ट्र का यह अधिकार बनता है कि वह उसे चुनाव प्रकिया से बाहर कर दे, ताकि वह सत्‍ता परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रभावित न कर सके।

 

मुझे याद है कि आज से अनेक साल पहले ही भारत में ऐसी व्‍यवस्‍था की वकालत माननीय स्‍वर्गीय श्री बाला साहेब ठाकरे करते थे। भारत ने  तो उनकी दूरदृष्टि को अब तक नहीं समझा मगर हमारा पड़ोसी म्‍यानमार ने यह कर के दिखा दिया और पूरी दुनिया के लिए एक नजीर पेश कर दिया। अब जरूरत है कि दूसरे तमाम लोकतांत्रिक देश इस दिशा में आगे बढ़े।    

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