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संरक्षणवादी रुख या मुक्त व्यापार पर विचार करना चाहिए

Vinod Singh, Editor, Textile Post
Vinod Singh, Editor, Textile Post


पिछले कुछ वर्षों में, आयात शुल्क और मुक्त व्यापार के प्रति भारत का रवैया कई अर्थशास्त्रियों के लिए विवाद का विषय रहा है। 2014 के बाद से,  भारत में औसत टैरिफ दरों में औसतन 5% की वृद्धि देखी है। भारत ने सबसे पसंदीदा देशों से 3200 से अधिक वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ा दिया है। यह घरेलू उद्योगों को बचाने के लिए एक संरक्षणवादी रुख का संकेत है।

 

विदेश व्यापार नीति और यूएस-इंडिया ट्रेड पॉलिसी फोरम


सरकार ने भारत से उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने वाले बिल और नीतियां बनाई हैं। उसने यूएस-इंडिया ट्रेड पॉलिसी फोरम की पुन: स्थापना की। सरकार ने विनिर्माण और असेंबली लाइन  को देश में ही स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना। उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) बनायी गयी।

 

सरकार के कदम ने विदेशी निर्माताओं को भारत में दुकान स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करने का इरादा किया। लेकिन वास्तव इससे में भारत के सबसे बड़े व्यापार भागीदारों यानी अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा टैरिफ में वृद्धि हुई।

 

भारत के निर्यात पर टैरिफ के प्रभाव

भारत के निर्यात पर इस तरह के टैरिफ के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए, आइए चार उत्पाद समूहों का मूल्यांकन करते हैं, जिन पर सरकार पिछले कुछ वर्षों में ध्यान केंद्रित कर रही है। ये हैं, कपड़ा और वस्‍त्र (textiles and clothing,), पूंजीगत सामान, खाद्य उत्पाद और कृषि कच्चे माल, और रसायन, ईंधन और धातु। इन उत्पाद समूहों के लिए, हमने भारत की निर्यात वृद्धि की संवेदनशीलता को दो चरों (variables) पर जांचने की कोशिश की:

१) भारत द्वारा लगाए गए आयात शुल्क और

२) 2011-19 से हमारे व्यापार भागीदारों द्वारा लगाए गए प्रतिशोधी शुल्क।

 

 

 

हमने 2011-19 के बीच की समयावधि के आधार पर विष्‍लेशन किया है। उससे पहले के वर्षों का समय व्यापार के आकार से महत्‍वपूर्ण नहीं है। 2000 से  2010  के बीच, भारत के पास किसी भी उत्पाद के निर्यात बाजार में बड़ा हिस्सा नहीं था। भारत के व्यापार भागीदार भारत से नगण्‍य माल आयात करते थे। वे भारत में तुलनातमक रूप से कहीं ज्‍यादा माल निर्यात करते थे। इसलिए, तब भारतीय उत्पादों की मांग की लोच टैरिफ अधिरोपण(tariff impositions) से प्रभावित नहीं हुई। इसके अलावा, 2000-2010 के ़दौरान, भारत अपने व्यापार आधार के विस्तार के चरण में था। वह सभी शुल्कों को कम करके कर रहा था। अर्थव्यवस्था को अधिक खुला बनाकर बना रहा था। इसलिए, व्यापार भागीदारों द्वारा कोई प्रतिशोधी शुल्क वृद्धि नहीं की गई थी।  

 

 

कपड़ा और वस्त्र (Textiles and Clothing)

 

इस क्षेत्र में भारत की निर्यात वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा एमएसएमई से आता है। पीएलआई योजना से उन्हें काफी फायदा हुआ है।

 

 

टेक्‍सटाइल उद्योग के एमएसएमई को टैरिफ के अलावा कुछ गैर-टैरिफ बाधाओं का भी सामना करना पड़ा। कोविड-19  के कारण लॉकडाउन लगे। बड़ी कंपनियों की तुलना में एमएसएमई के लिए क्षमता उपयोग अनुपात (capacity utilization ratio) काफी घटा।  MSMEs की निर्यात मांग पर पर्याप्त निर्भरता होते हैं। कुशल श्रमिकों की निरंतर आमद बढ़ने की आवश्यकता होती है।

 

वर्ष 2011-19 की अवधि में कपड़ा और वस्‍त्रों का निर्यात लचीला रहा है। भारत के व्यापार भागीदारों द्वारा ऐसे उत्पादों पर लगाए गए टैरिफ में बदलाव किए गए। टैरिफ दरों में प्रत्येक 1% की वृद्धि से इस क्षेत्र की निर्यात वृद्धि में 1.1% की कमी आती है।

 

टैरिफ पर प्रतिशोध

टैरिफ पर प्रतिशोध समान उत्पादों पर नहीं आता है, बल्कि उन उत्पादों पर आता है, जहां मांग अधिक लोचदार होती है। देश उन उत्पादों पर टैरिफ बढ़ाते हैं, जिनके लिए वे बाहरी निर्भरता को कम करना चाहते हैं। भारत के लिए, इलेक्ट्रॉनिक आइटम, धातु आदि जैसे निर्माण के लिए सामग्री उस सूची में शामिल है, जहां टैरिफ बढ़ोतरी प्रचलित है।

 

 

भारत के व्यापार भागीदारों के लिए यह मामला नहीं है। उनकी अलग-अलग व्यापार नीतियां हैं। वे उन उत्पाद श्रेणियों पर टैरिफ बढ़ाते हैं जहां वे व्यापार घाटे का सामना करते हैं। अमेरिका का वस्त्रों के लिए भारत के साथ 8 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। इसलिए जब भारत ने अमेरिका से आयात किए गए सामानों पर टैरिफ बढ़ाया तो अमेरिका ने भारतीय वस्त्रों पर टैरिफ बढ़ा दिया।

 

 

अधिकांश उद्योग जमीनी स्तर पर समस्याओं का सामना करते हैं। उन्हें घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के संदर्भ में अपनी विकास क्षमता से कैप को हटाने की आवश्यकता है। उल्टे टैरिफ संरचनाएं भारत के व्यापार में समस्याएं पैदा करती हैं। कई उद्योगों के लिए इसे पुनविचार करने की आवश्यकता है।

 

आयात शुल्क निर्यात वृद्धि को नुकसान पहुंचाते हैं और उनकी क्षमता पर एक कैप लगाते हैं। इसके अलावा  क्रेडिट की उपलब्धता, मौजूदा लॉजिस्टिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, उत्पाद गुणवत्ता नियंत्रण और विनियमों के अन्य समस्याएं भी हैं जिनका निदान होना चाहिए। 

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