मुंबई: बुरी खबरों के इस दौर
में आज एक और हृदय विदारक बुरी खबर आ गयी। २० मजदूरों का समूह महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश
पटरी पर चलकर जा रहा था। वे मजदूर रेल की
पटरी पर थक कर सो गये थे और ट्रेन उनके ऊपर से गुजर गयी। इसमें १६ मजदूरों की मौत हो
गयी। ५ मजदूरों को माइनर और मेजर इंज्यूरी आयी है। वे महाराष्ट्र के जलना के स्टील
प्लांट में काम करते थे। ४५ किमी दूरी तय करने के बाद रात होने पर वे लोग थक
कर ट्रैक पर सो गये। सुबह लगभग ५ बजकर २२ मिनट पर एक पेट्रोल और डीजल से भरी
मालगाड़ी गुजरी और ये हादसा हुआ। वहां से लगभग २०० किमि दूर मध्य प्रदेश में उनका
घर था।
अभूतपूर्व
कोरोना महामारी
देश अभूतपूर्व
स्थिति कोरोना महामारी के हालात से गुजर रहा है। यह यह दुर्घटना नहीं बल्कि गैर
इरादतन हत्या है। इसके पीछे कौन लोग है?
इसका मूल कारण क्या है? यह चिंता का विषय है।
सरकार
वही करेगी जो हमेशा से वे करती आयी है। एक रेल की इनक्वाइरी होगी। एक महाराष्ट्र
की सरकार की इनक्वाइरी होगी। जांच रिपोर्ट किसी को दाषी भी बता दिया जाएगा। अंत
में मामला रफा दफा भी हो जाएगा। जो मजदूर दुनिया छोड़ गये। वे लौट कर नहीं आएंगे।
क्या वे लोग कभी
पकड़े जाएंगे जो इसके असली दोषी हैं? क्या उनकी कभी पहचान हो पाएगी जिन्होंने
इरादतन या गैर इरादतन उनकी हत्या कर दी?
भारत एक
होकर खड़ा हुआ था
इस महामारी और
विभिषिका के समय भारत जिस तरह एक होकर खड़ा हुआ था, उसमें
कोई गुंजाइश नहीं थी, कोई आशंका
नहीं थी, कोई संदेह नहीं था, कि हम
इसे जीत पाएंगे, हम इस लड़ाई को बहुत अच्छे से लड़ पाएंगे।
करना
क्या था? जो जहां था, उसे
वहीं रहना था। जो गरीब है, उसका
हाथ सरकार को थाम लेना था। जो समाज में मजबूत है, उसे अपने से कमजोर का हाथ पकड़ लेना था।
कुछ राज्य
सरकारों का अभूतपूर्व सहयोग
ऐसा भी नहीं है कि
यह सब बिलकुल ही नहीं हुआ। यह हुआ भी। केंद्र सरकार ने इसके लिए जो बेहतर हो सकता था
किया। उसने ताबरतोर राज्यों को १ लाख ७० हजार करोड़ का पैकेज मुहैया किया। कुछ राज्यों
ने भी काफी बढिया काम किया। इसमें योगी आदित्य नाथ का नाम ने उत्तर प्रदेश में, शिवराज सिंह ने मध्य प्रदेश में और यदुरप्पा ने कर्नाटक में काफी
बढिया काम किया।
विपक्ष
की धटिया दर्जे की राजनीति
पूरी दुनियां में नरेंद्र मोदी की तारीफ होने लगी। मगर
इस देश में धटिया दर्जे की राजनीति करने वाली पार्टियों और नेताओं को लगा कि इतनी
बड़ी महामारी से लड़ने में यदि यह देश सफल हो जाएगा तो उसका सारा का सारा श्रेय तो एक प्रधान मंत्री ले जाएगा,
केंद्र की सरकार ले जाएगी,
भाजपा ले जाएगी।
उसके बाद अलग अलग
राज्यों से असहयोग के स्वर उभरने लगे। सबसे पहले दिल्ली से, फिर तुरत बाद महाराष्ट्र से, पश्चिम बंगाल से, और केंद
में विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी की ओर से असहयोग का स्वर और असहयोग का रवैया
शुरू हुआ।
उसके बाद स्थिति को विगाड़ने का एक माहौल तैयार किया गया। वे कहने लगे कि
मजदूर जाना चाहते हैं। इसको सबसे ज्यादा
उकसाने का काम तब हुआ था, जब आनंद विहार में दिल्ली सरकार ने भीड़ जमा कर
दी। उस समय मजदूरों को भड़काया गया, उन्हें भावुक किया
गया। फिर यही काम महाराष्ट्र के बांद्रा में किया गया।
केंद्र
द्वारा राज्यों को १ लाख ७० हजार करोड़ धनराशि आवंटित
ऐसे मजदूरों की देश भर
में संख्या मुश्किल से १ करोड़ थी। उसके लिए केंद्र ने १ लाख ७० हजार करोड़ रुपये
की धनराशि आवंटित कर दी थी। इस तरह देखें तो प्रति मजदूर १ लाख ७० हजार रूपये बनते
हैं। क्या इस रकम से मजदूर तीन चार महीने नहीं निकाल सकता है? केंद्र की मदद की तुलना
में वे तो बहुत कम लोग थे । उन्हें राज्य सरकारें, जिला
प्रशासन वहीं रोक सकते थे। उन्हें सम्हाला जा सकता था। मगर इस तरह से उन्हें
चित्रित किया जाने लगा जैसे वे मजदूर अपने गांव जाने को व्याकुल हों। वे जहां रह
रहे हैं, वहां से भाग जाना चाहता है।
राशन के वितरण में घपला
राज्य सरकारें उन्हें
सम्हालने में असफल रही हैं। राशन चोरी का आरोप ममता बैनरजी की सरकार पर लगी है, यह आरोप दिल्ली के अरविंद केजरीवाल की सरकार पर भी
लगी है। सवाल महाराष्ट्र की सरकार पर भी उठ रही है। अप्रैल में दिल्ली के अरविंद केजरीवाल की सरकार को जो अनाज
दिया गया उसने उसका मात्र एक प्रतिशत ही अब तक बांटा। जबकि ६० दिन बीत चुके हैं। पश्चिम
बंगाल में राशन का महा घोटाला सामने आया है।
दिल्ली
के अरविंद केजरीवाल की सरकार टीवी पर आकर कई बार यह बता चुकी है कि इतने लाख
लोगों को अनाज बांट दिया। मगर उसकी पोल खुल गयी है। उसने अप्रैल माह से अब तक महज
१२६०० लोगों को राशन बांटा है। इस बात का खुलासा केंद्रीय खद्य मंत्री राम विलास
पासमान ने अपने ट्विट में किया है। प्रधान मंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत
वितरित खाद्यानों की जानकारी दी। उन्होंने यह बताया कि राज्यों को कितना खाद्यान
दिया गया है और उन राज्यों ने अब तक कितना खाद्यान वितरित किया है। अप्रैल माह के लिए दिल्ली
को ३६३६८ टन अनाज आवंटित किया गया। इसमें १२६००
लाभार्थीयों को उसका १ फीसदी से भी कम अबतक बांटा गया।
लब्बो लुआब यह है
कि सभी राज्यों को उनके हिस्से का अनाज आवंटित किया जा चुका है। मगर राज्य सरकारें,
कुछ अपवाद को छोड़कर, इस अनाज को मजदूरों तक पहुचाने में असफल रही है ।
राज्य
सरकारों द्वारा अनावश्यक खरीद और घपला
दिल्ली
के अरविंद केजरीवाल की सरकार ने करोड़ों में अनावश्यक किट खरीदी जिसमें चांसलर तेल, तडका, नमक, मुंसी हल्दी हैं। इन कंपनियों से
मिलकर धोटाला किया जा रहा है । दूसरी तरफ जो हकदार हैं, उनको अनाज नहीं मिल रहा है।
अंत में थक कर मजदूरों
ने यह सोचा होगा कि ऐसे में घर जाना ही ठीक रहेगा। और मजबूर होकर बड़ी संख्या में
मजदूर अपने घर की तरफ निकल पड़े। जिससे यह हादसा हुआ। मजदूरों
की हत्या हुयी है। मगर उसके लिए जिम्मेवार कौन है? किन्होंने उनके मन में यह विचार डाला कि यहां नहीं रहना है, यहां से भाग जाना है?
प्रवासी
मजदूरों की उम्मीद
जिस
जमीन पर वे जीवन जीने आए थे, जहां
वे इस आस में आए थे कि आज नहीं तो कल हम भी एक अच्छी जिंदगी जी पाएंगे। इसी उम्मीद में तो वे गये थे। वे जिस तरह की जिंदगी जी रहे थे, उसमें यदि उनको दो वक्त खाने को मिल जाय, रहने को मिल जाय तो क्या वे लोग वहां से भाग कर वहां लौटना चाहेंगे, जहां
उन्हें खाने को नहीं मिल रहा था। वे अपने शहर, गांव, घर से, अपनी जमीन से,
अपने मां बाप से,
अपने परिजनों से अलग होकर, उनको छोड़ कर आए तो
इसी आस में कि कुछ कमा पाएंगे, एक बेहतर
जिंदगी जी पाएंगे। क्या वे सब के सब एक साथ पागल हो गये कि इस निर्णय पर विवस हो गये
कि नहीं हमें यहां नहीं रहना है? सच बात यह है कि राज्य सरकारें विफल हुयी हैं।
ये प्रवासी मजदूर इसलिए अपने जन्म स्थान को
छोड़कर आ जाते हैं, क्योंकि वहां उनके पास खाने और सम्मान से जीने का अवसर नहीं है। देश के हर उस शहर जहां
औद्यौगिक विकास हुआ है, वहां वे चले जाते हैं। मगर उन शहरों के विकास में उनका
योगदान है। पंजाब और हहियाना में यदि ये प्रवासी मजदूर न जांय तो वहां की खेती रुक
जाएगी।
६० दिन भी ये राज्य सरकारें, ये उद्योगपति लोग इनको खाने और रहने को नहीं दे पाए। सच बात तो यह है कि उन्होंने यह तय किया कि वे अब यहां रहें ही नहीं। बांद्रा के भीड़ के बाद अदित्य ठाकरे ने कहा था कि ये मजदूर यहां रहना नहीं चाहते हैं, वे घर जाना चाहते हैं। मगर सच्चाई इसके विपरीत है। वे राज्य सरकार से निराश हो गये और तब जाकर घर जाने का निर्णय लिया।
जरा सोचिए, कि जिन मजदूरों
के पास ६० दिन रह पाने की स्थिति नहीं है, उसको यदि खाना
पीना रहना मिल जाए, तो क्या वे फिर भी घर भागना चाहेंगे ? क्या
सरकार उनकी पहचान नहीं कर पा रही है, जिनके पास ६० दिन गुजारने के पैसे नहीं हैं? राज्य
सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। ये प्रवासी मजदूरों के साथ ऐसा व्यवहार
हुआ जैसे वे नाजायज औलोद हों।
कुछ लोग के अनर्गल सवाल
कुछ लोग सवाल कर रहे हैं कि वे रेलवे
ट्रैक से क्यों यात्रा कर रहे थे। आप बताइए कि वे क्या करते? सड़क से जाते तो हर नुक्कर पर
उनसे पूछा जाता कि उनके पास यात्रा का पास है कि नहीं।
प्रशासन के लिए यह शर्मनाक है कि वह उनके रहने खाने
का इंतजाम नहीं कर पा रही है। सरकार और प्रशासन की क्या प्रासंगिकता है यदि वे इन
प्रवासियों को इतनी भी सुरक्षा नहीं दे पा रहे हैं।
ये वो लोग हैं जो अपने कर्मभूमि से
जन्म भूमि के लिए निकले थे। सोचा था कि यदि हम रेलवे ट्रैक के किनारे किनारे चले
जाएंगे तो कोई पकड़ेगा नहीं। थक गये और सो गये। उन्हें क्या पता था कि वे हमेशा
के लिए सो जाएंगे, उन्हें सरकार सुला
देगी? यह जिम्मेदारी पूरी तरह से महाराष्ट्र सरकार की बनती है।
यह जिम्मेदारी पूरी तरह से उनकी है,
जो पहले ही दिन से इन प्रवासियों को भड़का रहे थे।



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