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| Kisan Andolan |
दिल्ली: पंजाब के किसोनों का आंदोलन अभी एक ज्वलंत मुद्दा है ।
इस किसान आंदोलन को समझना है तो आप इस लतीफे से समझ सकते हैं। एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग बन रही थी। २० वें फ्लोर पर कुछ मजदूर काम कर रहे थे। तभी एक मजदूर ने दूसरे मजदूर को आवाज लगायी कि अब्दुल तुम्हारी बेटी सलमा को ग्राउंड फ्लोर पर करेंट लग गया है।
उस दूसरे मजदूर ने सर से तसला फेका और नीचे सीढ़ी पर भागा। १६वें फ्लोर तक पहुचते पहुंचते उसे याद आया कि उसकी बेटी का नाम सलमा नहीं है। फिरभी वह नीचे भागता रहा। १२वें फ्लोर पर पहुंचते पहुंचते उसे याद आया कि उसकी तो कोई बेटी नहीं है। ८ वें फ्लोर तक पहुंचते पहुंचते उसे याद आया कि उसकी शादी तो हुयी ही नहीं है। ४थे फ्लोर तक पहुंचते पहुंचते उसे याद आया कि उसका नाम अब्दुल नहीं है।
दिल्ली में जो किसान आंदोल हो रहा है उसका यही हाल है। आंदोलनकारी की मांग है कि नये किसान बिल को वापस लिया जाय। मगर पंजाब में अमरेंदर सिंह की सरकार ने विधान सभा में एक बिल पारित किया है कि यह बिल पंजाब में लागू नहीं होगा। मगर फिर भी ४ महीने का रसद लेकर आंदोलनकारी दिल्ली पहुच चुके हैं। दिल्ली पहुंचकर उन्हें पता चल गया कि वे तो किसान भी नहीं हैं। वे तो अढतिया हैं। वे तो विचौलिय और दलाल हैं। उनके साथ खरे लोग भी तो किसान नहीं हैं। वे खालिस्तानी हैं, भारत विरोधी हैं। कुछ पाकिस्तानी आइ एस आइ के एजेंट हैं। कुछ वामपंथी हैं जिनका कोई देश नहीं होता। कुछ साथ देने वाले ऐसे कांग्रेसी लोग हैं जो जमानत पर रिहा है। उनको यह डर है कि यदि देश में सब ठीक चलता रहा तो उनका जेल जाना तय है। कुछ मीम भीम गठबंधन के लोग हैं जिनको पंजाब के किसानो से कोई लेना देना नहीं है। कुछ आम आदमी पार्टी के लोग हैं जो बस अपनी रोटी सेकने के इंतजार में कब से खरे थे। कुल मिला कर बात यह है कि वह अब्दुल है ही नहीं, जिसकी बेटी को करेंट लग गया।
अगर किसान सरकार से बात करना चाहते हैं तो सरकार को हर हाल में बात करनी चाहिए। जहां जहां किसान को मुश्किल दिख रही है, उसका भरसक निवारण होना चाहिए। सरकार ने किसान के हित में ९९ प्रतिशत पुख्ता व्यवस्था कर दी है। लेकिन यदि १ प्रतिशत भी किसानों को संदेह है, तो यह सरकार की जिम्मेवारी बनती है कि सरकार उसको दुरुस्त करे। इसी के लिए जनता मत देकर उन्हें सत्तासीन करती है।
देश के प्रधान मंत्री का जो रुख है उससे किसानो की आशंका दूर हो जानी चाहिए। मगर यह दुर्भाग्य है कि आंदोलनकारी किसानों के मन की आशंका दूर नहीं हुई।
दिल्ली में जो आंदोलन हो रहा है वह किसान आंदोलन नहीं है
किसानों का आंदोलन हमेशा एक निश्चित समय पर होता है। जब एक फसल कट जाती है और दुसरी फसल की बुआई हो जाती है। बुआई के बाद और पहली निराइ के बीच का जो समय है उसमें उनका आंदोलन होता है। उसके अलावा कभी भी किसानों का आंदोलन नहीं होते हैं। इस हिसाब से आज जो दिल्ली में आंदोलन हो रहा है वह किसान आंदोलन नहीं है।
सरकार ने जो तीन अधिनियम पास किए हैं वे किसानों को च्वाइस देते हैं। अब तक किसानों के पास च्वाइस नहीं था। किसान के लिए यह बाध्यकारी था कि वह अपना उत्पाद एक निश्चित मंडी में जाकर ही बेचे। यदि वह इसे उसके बाहर बेचता है तो यह गैरकानूनी होती थी।
इन तीन अधिनियमों से यह स्थिति बनी है कि किसान मुक्त हो गया है कि वह चाहे तो मंडी में जाकर बेचे, और चाहे तो दूसरी मंडी में या दूसरे प्रदेश में या किसी प्राइवेट आदमी को भी वह बेच सकता है, वह अपने घर पर खरीददार को आमंत्रित कर सकता है, वह ऑनलाइन अपना माल बेच सकता है। अब किसानों के लिए मंडी पर जाकर बेचना बाध्यकारी नहीं है। फिर भी कोई किसान मंडी में जाकर बेचना चाहता है तो उसे कोई परेशानी नहीं है।
आंदोलनकारीयों की मांग
यह आंदोलन यह कह रहा है कि हमको आप किसी तरह को च्वाइस मत दीजिए, हमको आप किसी तरह को विकल्प मत दीजिए। क्या किसी समझदार आदमी की समझ में यह बात आ सकती है कि किसान इस तरह की मांग क्यों करेंगे। क्या कोई किसान इस तरह की मांग कर सकता है कि मैं दूसरे विकल्प नहीं चाहता हूं, न में अपने पसंद से ग्राहकों का चुनाव कर सकूं, न मैं ऑनलाइन से अपना माल बेच सकूं। यह जो एक तरह का किसानों का जेल है उसे बरकरार रखा जाय। मंडी में जाना उसके लिए कैद के बराबर रहता है। क्या कोई कैदी कह सकता है कि मुझे मत आजाद करो?
यह इसलिए हो रहा है कि पंजाब के किसान बहुत सीधा है। उसको आसानी से भड़काय जा सकता है। उसको भड़काने के लिए यह कहा गया कि आपको एमएसपी नहीं मिलेगी। मगर हकीकत यह है कि एमएसपी तो किसी ने रोकी नहीं। किसी ने मंडी तो बंद की नहीं। मंडी के अलावा किसानों को चार और विकल्प दे दिए गये।
आज भी मंडी से देश की कुल उपज का पांच से छ प्रतिशत ही खरीदा जाता है। तो बांकी ९५ प्रतिशत लोग अपनी उपज औने पौने पर बेचने को मजबूर होते हैं। अब उनके पास औप्सन आ गया। इससे सारे अढतियों को लगा कि कि अब उनकी मोनो पॉली खत्म हो जाएगी।
पंजाब की मंडियां पूरी तरह से अकालिओं के कब्जे में है। इस तरह कमीशन से वे १६०० करोड़ की कमाई करते है। यह आंदोलन उसी के लिए किा जा रहा है। इस कब्जे को पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेंदर सिंह अपने कब्जे में लेना चाहते हैं। यह मंडी पर कब्जा करने की राजनीति है। यही है दिल्ली में चल रहा किसान विरोध का आंदोलन।
इसका परिणाम भयानक हो सकता है
यह मंडी पर कब्जा करने की राजनीति है। इसका परिणाम भयानक हो सकता है। आप याद करें पिछली बार जब कांग्रेस ने इसी तरह की राजनीति की थी। ज्ञानी जैल सिंह ने जाटों को अकाली दल से निकाल कर अपने कब्जे में लाने की कोशिश की थी, तो पंजाब ने १५ सालों तक आतंकवाद की यातना भोगी थी। अब कैप्टन अमरेंदर सिंह वही प्रयास कर रहे हैं। उस जाट राजनीति में हस्तक्षेप करके चिंगारी लगा रहे हैं। अगर इससे ठीक से नहीं निपटा गया तो फिर उसी १९८० और १९९० के दशक की पुनरावृत्ति हो सकती है।
इसमें अपना हाथ सेकने के लिए आम आदमी पार्टी वाले तैयार खरे हैं। वे तो खलिस्तान के पुराने हिमायती हैं। वे नये विभाजनकारी हैं। तभी तो दिल्ली में वे उनका स्वागत कर रहे हैं। यह आंदोलन पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है। यह २०२२ के चुनाव को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। यह आंदोलन देश के लिए घातक है। इसलिए पंजाब के अतिरिक्त कहीं का किसान नहीं है। पंजाब में भी इसमें जो शामिल हैं जिनका मंडियों पर कब्जा है। बांकी सामान्य किसान इस आंदोलन से दूर हैं।
आंदोलनकारी किसान सरकार से बात ही नहीं करना चाहते हैं
मगर एक सवाल यह खड़ा होता कि आंदोलनकारी किसान सरकार से बात ही नहीं करना चाहते हैं। वे यह सोचकर पंजाब से निकले हैं कि हम बात नहीं करेंगे। हम दिल्ली को जाम कर देंगे। हम इतनी अराजकता फैलाएंगे कि दुनियां की खबरों में यह समाचार आएगा कि भारत की मोदी सरकार ने किसानों पर इतना अत्याचार किया कि उन्हें दिल्ली की घेराबंदी करने पर मजबूर होना पड़ा।
निश्चित तौर पर इसके प्रतिकार में पुलिस कार्रवाई करनी पड़ेगी। हंगामा होगा। अराजक स्थिति बनेगी। यही ये आंदोलनकारी चाहते हैं। ये आंदोलनकारी किसान हैं ही नहीं । क्योंकि किसान ऐसा चाह ही नहीं सकता है। भारतीय किसानों का इतिहास ऐसा है कि वे मजबूरी में आत्महत्या तो कर सकते हैं मगर किसी दूसरे का गला नहीं काट सकते। किसी को ट्रैक्टर से कुचल नहीं सकते। फिर ये आंदोलनकारी ऐसा क्यों कर रहे हैं यह सोचने वाली बात है।
किसान बिल के बारे में दुष्प्रचार
किसान के बारे में अनेक दुष्प्रचार किए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि किसानो से जमीन ले ली जाएगी। मगर ऐसा कुछ नहीं है। किसानो से कोई जमीन नहीं ले रहा है। यह कहा जा रहा है कि एमएसपी खत्म कर दी जाएगी। मगर ऐसा भी नहीं है। एमएसपी का जो मौडेल है, उससे कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है। यह कहा जा रहा है कि मंडी को खत्म कर दी जाएगी। मगर ऐसा भी नहीं है। मंडी को खत्म नहीं किया जा रहा है। जिसको मंडी में जाकर बेचना है, वह उसी तरह मंडी का शुल्क अदा करके मंडी में अपनी उपज बेच सकता है। संसद के सदन में गृह मंत्री यह कह चुके हैं।
तो फिर इस बिल में क्या है ? पहली बात यह है कि पुराने किसी भी प्रावधान को खत्म नहीं किया गया है। उसमें एक रत्ती भर भी छेड़छाड़ नहीं की गयी है।
फिर नये बिल में हुआ क्या? पुरानी व्यवस्था में एक अवरोध था कि आप मंडी के अंदर ही किसान अपना उत्पाद बेच सकते हैं। और मंडी के अढ़तिया और बिचौलिया उसका दाम तय करते थे। किसान उस तय मुल्य पर अपनी उपज बेचने को मजबूर था। यह एक जबरदस्ती का कानून था जो अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा था।
इस नये बिल में यह प्रावधान कर दिया गया कि आपको जहां मन करता है, आप अपनी उपज वहां बेचें। आप अपने उत्पाद के मालिक हैं। आप अपने उत्पाद का मुल्य स्वयं तय कर सकते हैं। पहले एक काला कानून चल रहा था कि आप अपने सामान का न मुल्य तय कर सकते हैं न आप मंडी के बाहर उसे बेच सकते हैं। मंडी के ठेकेदार तय करते थे कि आपके उत्पाद का क्या मुल्य होगा। अब ऐसा नहीं होगा।
अब किसानो को मुक्त कर दिया गया कि आप अपने उत्पाद को जिसे चाहें उसके हाथों बेच सकते हैं। आपको जो सबसे अच्छा दाम देता है आप उसे बेचें। आप अपने बाजार में सीधे भी बेच सकते हैं। आप अंबानी और वाल मार्ट को बेच सकते हैं। आप मुक्त हैं।
कोई भी औद्योगिक उत्पाद है, उसका दाम तो उत्पादक तय करता है। तो फिर किसानों को यह अधिकार क्यों नहीं। असल बात तो यह है कि ७० सालों से किसानों को यह हक ही नहीं था कि वह अपने उत्पाद का मुल्य निर्धारित कर सके। वह अपनी मर्जी से ग्राहक चुन सके। इस सरकार ने बस उस काले कानून को हटाया है। यह कानून तो ७० साल पहले ही बन जाना चाहिए था। तब नहीं बना। अब बना। मोदी साहब को धन्यवाद है। अब किसानो के पास औप्सन है। पहले नहीं था।
आंदोलनकारियों की हताशा
दरअसल पंजाब के जो किसान संगठन दिल्ली आए हैं। वे इस हतासा में हैं कि इस आंदोलन में इनको देश के दूसरे हिस्से के किसानों से इनको समर्थन नहीं मिल रहा है। यहां तक कि पंजाब के भी जो सामान्य किसान हैं वे इस आंदोलन के समर्थन में नहीं खड़े हुए। यह वास्तव में उन अढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन है जिनका मंडियों पर एकाधिकार था। वे किसानों के उत्पाद को औने पौने दाम में खरीदते थे और बाद में उसी उत्पाद को बाजार में महगे दाम पर बेचते थे। कहां से आए उनके पास तीस तीस लाख के कार। ये क्या सामान्य किसान हो सकते हैं? इनको एमएसपी की राजनीति करनी है।
पुरानी व्यवस्था का लाभ बहुत छोटे से एक बर्ग को मिलता था, वे कहने भर के किसान हैं। असल में वे मंडी पर राज करनेवाले लोग हैं। अपना लाभ कैसे बचाए रख पाएं, यह सिर्फ इसी बात की लड़ाई है। यह आंदोलन आम किसानो के हित के विराध में है। इसलिए पंजाब और हरियाना के आम किसान भी इनके साथ नहीं हैं।
आखिर इस नये कानून से किसानों पर कहां अत्याचार हुआ है? क्या अत्याचार हुआ है? कैसे अत्याचार हुआ है? आपको एक जरूरी आंकरा देकर समझाने की कोशिश करता हूं।
धान की रेकार्ड खरीद
ये जो कृषि सुधार कानून लागू हुए हैं, उसके बाद देश में धान की खरीद हुयी है। यह धान की खरीद रेकार्ड स्तर पर हुयी है। जिस वक्त यह कहा जा रहा है कि सरकार ने एमएसपी खत्म कर दिया, उस वक्त देश में धान की खरीद रेकार्ड हुयी है। धान की जो सरकारी खरीद हुयी उसमें भी सर्बाधिक खरीद अकेले पंजाब से हुयी।
तो आखिर वे कौन से किसान हैं, जिनको एमएसपी का लाभ मिला, जिन्होंने मिनिमम सपोर्ट प्राइस पर घान बेच लिया, रकम जिनके खाते में आ गयी, या आने वाली है। वे किसान कहां हैं? वे किसान इस आंदोलन में क्यों नहीं हैं? और ये किसान कोन हैं जो दिल्ली जाम कर रहे हैं? क्या आंदोलनकारी वे किसान हैं, जो उन वास्तविक किसानों का हित मारने के फिराक में हैं, जो एमएसपी का लाभ उठा रहे हैं।
एमएसपी का लाभ उठानेवाले जो किसान हैं, वे तो कहीं इस आंदोलन में दिख ही नहीं रहे हैं। वे तो अभी अपने खेत में हैं। वे अपनी उपज समेटने में लगे हैं। अपने उत्पाद के विपनन में मसगूल हैं। वे तो इस चक्कर में ही नहीं हैं कि दिल्ली की बोर्डर पर आकर लोगों के आवागमन को बाधित करना है।
इस खेल को ठीक से समझने की जरूरत है
घान के पीछले मारकेटिंग सत्र २०१९-२० में एमएसपी पर २६६.१९ लाख मिट्रिक टन धान सरकार ने खरीदी थी। अब ताजा हाल क्या रहा? कृषि सुधार कानून आये। क्या एमएसपी पर सरकारी खरीद खत्म हो गयी? क्या एम एस पी पर धान बेचना असंभव हो गया? क्या किसानों के हित पूरी तरह से दबा दिए गये? क्या सरकार ने कृषि का सारा कारोबार अडानी और अंबानी के हाथों बेच दिया। क्या यह सब गड़बर हो गया? अब इसका जवाब खोजते हैं।
२०२०-२१ में अर्थात वर्तमान विपनन सत्र में ३१५.८७ लाख मिट्रिक टन धान की खरीद रेकार्ड हुयी है। अर्थात एमसएपी पर धान की खरीद में १९ प्रतिशत की वृद्धि हुयी है।
पहले तो गेहूं और धान के अलावा एम एस पी पर कोई खरीद ही नहीं होती थी। अब तो देश के ज्यदातर राज्यों ने कई अन्य उपज को इसमें शामिल कर लिया है। अब तो लगभग सभी प्रकार के अनाज की एम एस पी पर सरकारी खरीद होती है।
ये जो वर्तमान विपनन सत्र में ३१५.८७ लाख मिट्रिक टन धान की खरीद रेकार्ड हुयी है, इसमें से २०२.७२ लाख मिट्रिक टन ( अर्थात ६४ प्रतिशत) धान की खरीद अकेले पंजाब से हुयी है।
इसके बावजूद कौन सी ऐसी दिक्कत है कि ये आंदोलनकारी किसान कह रहे हैं कि हम शेष किसानों को यह समझा देंगे कि पूरा का पूरा कृषि कानून गलत है।
सरकार का रुख स्पष्ट है
सरकार का रुख स्पष्ट है। भारत किसानों का देश है। अगर किसानों की हालत ठीक नहीं रहेगी, तो देश में कुछ भी ठीक नहीं रहेगा। अगर किसानों के साथ अत्याचार होता रहेगा, तो इसका यह मतलब है कि देश के साथ अत्याचार हो रहा है। अगर हमारा किसान बुरे हाल में रहेगा, फिर दुनियां की कोई ताकत हमें समृद्ध और संपन्न नहीं बना सकती है। इस सरकार ने इस ब्रह्म सत्य को समझा। पूर्व की सभी सरकारों ने किसान के हित की अनसूनी की सिवाय लाल बहादूर शास्त्री की सरकार। मगर यह हमार दुर्भाग्य है कि वे मात्र दो वर्ष हमारे प्रधान मंत्री रहे। उनके बाद फिर किसानों के हित में सोचने वाला प्रधान मंत्री भारत को २०१४ में मिला।
किसान क्यों पीछे रहे
और क्यों हम पीछे रहें? इतना बड़ा बाजार होने के बावजूद हम ७० सालों में क्यों भारतीय अर्थव्यवस्था में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया? क्योंकि हम अपने किसानों को, अपने अन्नदाता को खुश नहीं रख पाए। हम किसानों को उसका हक नहीं दे पाए। इन्हीं सब वजहों से देश का किसान बर्बाद होता रहा। और देश की सरकारें उसे बर्बाद करती रही या कम से कम किसानों को बरबाद होते हुए मूक दर्शक की तरह देखती रही। देश के किसानों को बर्बाद करने वाले तंत्र में सरकार समर्थित तत्व गेहूं में घुन की तरह घुस गयी। और ऐसी घुसी कि वो निकलने को तैयार नहीं हैं। आज किसान के नाम पर वही किसान विरोधी लोग आंदोलन कर रहे हैं।
अब, जब बहुत से किसानों को यह समझ में आ रहा है कि मोदी सरकार का यह प्रयास उन घुन को ठीक करने की कोशिश है तो उसके खिलाफ किस तरह का प्रोपेगैंडा पंजाब की सरकार, पंजाब की किसान युनियन कर रही है। उनका साथ दे रहे हैं राष्ट्र विरोधी ताकतें। जो कभी शाहीनवाग के साथ थे वे आज इन आंदोलनकरियों के साथ खड़े हैं।
राष्ट्र विरोधी तत्वों का इसमें शामिल होना
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार केंद्र के कृषि कानून को दिल्ली में लागू कर देती है और वही आम आदमी पार्टी पंजाब के आंदोलनकारियों को आंदोलन करने के लए फैसिलिटेट कर रही है। उनके लिए खाने पीने रहने और आंदोलन चालू रखने का इंतजामात कर रही है।
इसी केजरीवाल ने कोरोना महामारी के काल में माइक लगा के प्रवासी मजदूरों को भगाया था। उस वक्त उसे शर्म नहीं आयी। आज वह बैनर लगा रही है कि हम किसानो के लिए लंगर चला रहे हैं। वे किसान खुद ही ४ महीनों का राशन लेकर आए हैं। उनको किसी के लंगर की जरूरत नहीं है। उसके स्वागत में दिल्ली सरकार क्यों खड़ी है? पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
आज जब बैठक हुयी तो सरकार की तरफ से बाजाप्ता प्रेजेंटेशन दिया गया। मगर आंदोलनकारी कह रहे हैं कि हम इसे वापस लेने को मजबूर कर देंगे । चाहे गोली चले। चाहे शांति से। इस आंदोलन में चंद्रशेखर रावन आ गया है । साहीनबाग की दादी बिलकीस बानो भी आ गयी है। इनको किसान आंदोलन में आने का क्या मतलब हो सकता है यह आप समझ सकते हैं।
मनमोहन सरकार और मोदी सरकार की तुलना
वर्ष २००९ से २०१४ के पांच सालों में मनमोहन २ के दौरान एमएसपी के अंतर्गत गेहूं की सरकारी कुल खरीद होती है १.५ लाख करोड़ रुपये की । जबकि २०१४ से २०१९ के दौरान अर्थात मोदी १ काल में दोगुनी अर्थान ३ लाख करोड़ हो जाती है। अर्थात सरकारी खरीद के जरिए या तो दोगुनी किसानों को लाभ मिला या जितने किसानो को लाभ मिला उसकी रकम दोगुनी हो गयी ।
अगर हम यूपीए २ और मोदी १ में सरकारी खरीद की तुलना कर लें तो २ लाख करोड़ रुपए का धान २००९ से २०१४ तक खरीदा गया। वही २०१४ से २०१९ में सरकारी खरीद ५ लाख करोड़ की हो गयी। अर्थात २.५ गुणा ज्यादा किसान लाभान्वित हुए यो किसानों को २.५ गुना ज्यादा लाभ मिला।
दालों के मामले में २००९ से २०१४ के दौरान भारत की अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह सरकार ने ६५० करोड़ की दाल की खरीद की। वहीं २००१४ से २०१९ के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार ने ५० हजार करोड़ की दाल की खरीद हुयी। इन दोनो रकम में ८ गुणा का फर्क है। ये पैसा किसके पास गया। ये गया किसान की जेब में। और यह रकम किसानो के खाते में डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर भी हुआ।
२००९ से २०१४ के दौरान हर सरकारी खरीद पर डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर की स्थिति नहीं थी। जबकि नरेंद्र मोदी काल में सारा पैसा सीधे किसान के खाते में गया।
मोदी सरकार से किसानो की आशा जगी है
अब जो केंद्र की सरकार है, उससे किसानो की आशा जगी है कि अब हमारे बच्चे भी किसानी करना चाहेंगे। ऐसी स्थिति में किसानों के नाम पर संगठन करनेवाले और राजनीति करने वाले लोग किसान का ही बुरा कर रहे हैं। मोदी सरकार चाहती है कि किसान खूब मजबूत हो। लोग कृषि की तरफ फिर से आकर्षित हो । किसान का बेटा शहर जाकर काम नहीं तलाशे।
अफवाह, भ्रम, फर्जीवारा का सहारा
ये आंदोलनकारी अफवाह, भ्रम, फर्जीवारा का सहारा लेकर सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं। मगर सरकार ने और खुद नरेंद्र मोदी ने अपना रुख स्पष्ट कर रखा है। उन्होंने साफ साफ कहा कि हमने किसानो से बात करके कानून लागू किया। कृषि विशेषज्ञों से लगातार चर्चा करके ये सुधार किए और कानून बनाया। इसका किसानो को निश्चित लाभ मिलेगा। मोदी साहब अपनी बात पर कायम हैं। और कायम रहेंगे। इस कानून के वापस लेने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
खलिस्तानियों का आंदोलन
ये दरअसल खलिस्तानियों का आंदोलन है। देश के अन्य सभी राज्यों के किसान आस्वस्थ हैं कि कानून उनकी बेहतरी के लिए हैं। तो यह कानून अकेले पंजाब और हरियाना के किसानों के विरुद्ध कैसे हो सकता है।
अगर यह पंजाब के किसानो का आंदोलन है तो पंजाब सरकार को आना चाहिए समाधान के साथ। कृषि एक ऐसा विषय है जिसमपर केंद्र और राज्य दोनो को कानून बनाने का हक है।
इसके अलावा पंजाब सरकार ने इस कानून को लागू करने से इनकार कर दिया। पंजाब विधान सभा में राज्य सरकार ने केंद्र के कानून को खारिज कर दिया। यह कानून अब पंजाब पर लागू ही नहीं होता। फिर आंदोलन की कोई गुंजाइस ही नहीं बचती है।
किसानों से जुड़े हुए मुद्दों पर मोदी सरकार
किसानों से जुड़े हुए मुद्दों पर मोदी सरकार ने जितनी चर्चा की इतनी किसी पूर्व की सरकारों ने नहीं की। मोदी सरकार ने आज जो कदम उठाए हैं वह तो १९४७ में आजादी के ठीक बाद केंद्र की सरकार को उठानी चाहिए थी। मगर इन ७० सालों में किसानो की बेहतरी के लिए कुछ नहीं किया गया।
इससे पूर्व की सरकारों ने सबसीडी कम या ज्यादा करना, कर्ज माफी करना, आदि करते रहे जिससे किसानों की समस्या का कोई स्थाई नहीं हो सका।
किसानों की मूलभूत समस्या क्या है और उसका समाधान कैसे हो, उसके लिए इतनी चिंता मात्र इसी सरकार ने दिखाई।
नया कृषि बिल २०२०
अप्रैल ९ २००५ को दिल्ली में एग्रीकलचर सम्मिट हुआ था। तब के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने सम्मिट को संवोधित करते हुए कहा था कि सभी वस्तु एवं सेवाओं के लिए स्थानीय बाजारों को एकीकृत किए जाने के लिए उनकी सरकार प्रतिवद्ध है। कृषि उत्पादों के लिए हमें पूरे देश को सिंगल मारकेट बनाना है। हमे इसके आंतरिक नियंत्रण और बाधाओं को हटाना है।
मनमोहन सिंह ने बस
घोषणा की और अपने १० वर्षों के कार्यकाल में इस दिशा में उन्होंने कुछ काम नहीं
किया। मनमोहन सिंह की सारी उर्जा घोटाला करने और उन मामले को दबाने
में लग गये। आज मोदी सरकार ने किसान की उन्नति की दिशा में काम कर के दिखा दिया। वे
धन्यवाद के पात्र हैं। वे किसानो के लिए मसीहा हैं। देश भर के किसान मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं।
ये विधेयक किसानो को बांधता नहीं है
ये विधेयक किसानो को बांधता नहीं है बल्कि उसे ज्यादा अवसर प्रदान करता है। इसमें व्यापारियों की भी हाणि नहीं है। अभी एक व्यापारी एक मंडी तक सिमित काम करता है। अब वह किसी भी मंडी के लिए काम कर सकता है। इससे लाइसेंस राज समाप्त हुआ है।
कृषि व्यापार और वाणिज्य विधेयक
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कृषि व्यापार और वाणिज्य विधेयक और कीमत आस्वासन दोनो लाए गये हैं। ये किसान के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले हैं। किसान अब अपने उत्पाद का मूल्य स्वयं निर्धारित कर पाएगा। यह अब से पहले संभव नहीं था। यह किसानों की जीत है।
पीएम किसान सहायता के माध्यम से सरकार किसानों को साल भर में ७५००० करोड़ रूपये देने जा रही है। सरकार अबतक डीवीडी के माध्यम से किसानों के खाते में ९२००० करोड़ रुपये जमा कर चुकी है।
१०००० नये एफपीओ
किसान को मजबूत बनाने के लिए सरकार ने १०००० नये एफपीओ बनाने की घोषणा की है। नरेंद्र मोदी जब कुछ वादा करते हैं तो उसे डेलीवर करते हैं। (जबकि मनमोहन सिंह डपोरशंख की तरह सिर्फ घोषणा करते थे और उस घोषणा पत्र को ठंढे वस्ते में डाल देते थे।) इस पर काम प्रारंभ हो गया है। ६८५० करोड़ रुपये एफपीओ को समर्थन देने के लिए खर्च किया जाएगा।
किसानों को ऋण की राशि में बढोतरी
पहले किसानों को अधिकतक ८ लाख करोड़ रुपये ऋण मिलता था। अब नरेंद्र मोदी सरकार ने तय किया कि किसानों को १५ लाख करोड़ रुपये का ऋण मिले।
अत्मनिर्भर पैकेज के तहत कृषि अवसर संरचना
कोविड के बाद अत्मनिर्भर पैकेज के तहत केंद्र सरकार ने कृषि अवसर संरचना के लिए १ लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की गयी। फिसरीज के लिए २० हजार करोड़ रुपये, पशुपालन के लिए १५ हजार करोड़ रुपये, हरवल खेती के लिए ४ हजार करोड़ रुपये, फूड प्रोसेसिंग के लिए १० हजार करोड़ रुपये, मधुमक्खी पालन के लिए ५०० करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है।
८ जुलाई २०२० को कृषि अवसर संरचना की मंजूरी मंत्रि परिषद से हुयी। एक महीने के अंदर सहकारी समितियों को इस पैकेज के अंतर्गत ११२८ करोड़ रुपये का ऋण दे दिया गया। आज यह बढकर लगभग १५०० करोड़ रुपये हो गया है।
पांच बर्षों में लगातार यह कोशिश हो रही है कि बुआइ का रकवा बढे, जैबिक खेती का रकवा बढे, उत्पादन बढे, उत्पदकता बढे, उपार्जन बढे। इसमें लगातार सरकार काम कर रही है और सफलता मिल रही है।
किसानों के हित में रिफौर्म
किसानों के हित में यह जो रिफौर्म हो रहा है, उसमें किसानों का फायदा है। भ्रष्टाचार पर इससे नियंत्रण लगेगा। किसान पूरे देश में स्वतंत्रतापूर्वक देश में कहीं भी अपना उत्पाद बेच सकेगा। व्यापारी भी देश भर में कहीं भी व्यापार करने के लए आजाद होंगे।
पंजाब और हरियाना के किसान विरोध क्यों कर रहे हैं
केंद्र सरकार ने जो कृषि बिल पारित किया उसपर पंजाब और हरियाना के किसान विरोध कर रहे हैं। वास्तव में ये लोग किसान हैं ही नहीं।
संविधान ने केंद्र और राज्य के विषयों का बटबारा कर रखा है कि किन विषयों पर केंद्र कानून बना सकता है, किन विषयों पर राज्य कानून बना सकता है, किन विषयों पर दोनो कानून बना सकते हैं।
पंजाब सरकार अपने राज्य में इन्हें लागू नहीं कर रही है
कृषि एक एक ऐसा विषय है जिसपर दोनो कानून बना सकते हैं। केंद्र सरकार ने कृषि से जुड़े ३ नये बिल बनाये । पंजाब सरकार ने कहा है कि हम अपने राज्य में इन्हें लागू नहीं करेंगे। इसको काउंटर करने के लिए पंजाब सरकार ने अपने यहां वैकल्पिक कानून बना लिए।
इस तरह यह बात स्पष्ट है कि जब पंजाब सरकार इस केंद्रीय कृषि बिल को लागू ही नहीं कर रही है। फिर पंजाब के किसानों को इसके विरोध करने कोई तर्क नहीं है। वे दिल्ली आकर सड़क जाम कर रहे हैं। रेल रोक रहे हैं।
यह विरोध प्रदर्शन यदि पंजाब के किसान कर रहे होते तो यह कैसे संभव है कि पंजाब की मंडियों में किसानो ने रेकार्ड धान की बिक्री की है। यह प्रदर्शन बाहरी ताकतों की मदद से की जा रही है। इसमें भाग लेने वाले तथाकथित किसान दस दस लाख के ट्रैक्टरों से और बीस बीस तीस तीस लाख के कारों पर आए हैं। उनके पास अगले एक महीने का रसद भी है। उनके लिए जो खाने पीने का इंतजाम है वो दिल्ली की मस्जिदों में की जा रही है। उनके प्रदर्शनी के लिए उच्च श्रेणी के सिनेमा कैमरा और कैमरा मैन हायर किए गये हैं।
इस आंदोलन को कैनैडा और इस्लामिक देशों से फंड किया गया है। यह बाहरी तकतों द्वारा स्पौंसर्ड आंदोलन है। यह पंजाब के असली किसानों का प्रोटेस्ट है ही नहीं। यह आंदोलन उन ताकतों के द्वारा किया जा रहा है जो नरेंद्र मोदी सरकार को उखार फेकना चाहते हैं। जिनका हित ईमानदार सरकार के साथ सध नहीं सकता।
यह बिल किसानों के हित में है, फिर किसान का विरोध क्यों?
पंजाब की एक खबर है २०१७ की । पंजाब की मंडियों में किसानों से २५ पैसे प्रति किलो आलू खरीदा गया। जबकि किसानों की लागत प्रति किलो दो रूपये से ऊपर बनती है। लेकिन किसानों ने कोई प्रोटेस्ट नहीं किया। इसी साल अप्रैल के महीने की खबर है कि पंजाब की मंडियों में सिमला मिर्च इतनी सस्ती बिक रही थी कि किसानों ने उन्हें अपने गाय बकरी को खिला दिया। किसान अपने फसलों की लागत नहीं ले पा रहा है। इसके बावजूद किसान सड़कों पर नहीं आया फिर अभी कौन है जो किसान के नाम पर आंदोलन कर रहे हैं ?
जब आप औरगेनाइज्ड प्रोटेस्ट करते हैं तो आपको भीड़ चाहिए होता है। फिर आपको उसे खिलाना पड़ेगा। फिर उनके परिवहन का खर्चा आएगा। इन सब चीजों के लिए लाखों करोड़ो रूपए की जरूरत पड़ेगी। आम किसानो के पास तो इनते पैसे होते नहीं हैं।
ऐसे कामों में आप कानून तोड़ते हैं। फिर आपको मुकदमा लड़ना पड़ सकता है। उसमें वकीलों पर लंबा चौरा खर्च आता है। किसानों के पास इसके लिए पैसे तो होते नहीं। इसीलिए वे प्रोटेस्ट करते नहीं हैं। आम आदमी का यह प्रोटेस्ट है ही नहीं। हर बड़ा प्रोटेस्ट स्पोंसर्ड होता है। यह भी है।
यह विरोध पंजाब और हरियाना में ही क्यों हो रहा है?
यह विरोध पंजाब और हरियाना में ही क्यों हो रहा है? किसान तो सबसे ज्यादा यूपी में हैं, एमपी में हैं, बिहार में हैं, आंध्रा प्रदेश में हैं, कर्नाटक में हैं, तमिल नाडु में हैं, उड़ीसा में हैं, असम में हैं, राजस्थान में हैं, गुजरात में हैं, महाराष्ट्र में हैं, इत्यादि। उनको क्यों तकलीफ नहीं है। पंजाब और हरियाना में तो किसानों की आवादी कम है। इनको क्या तकलीफ है?
जब हमारा देश आजाद हुआ था तो हमारे पास सिंचाई की सुविधा नहीं थी । डैम नहीं बने थे। कैनाल नहीं बने थे। हरित क्रांति की शुरुआत पंजाब से हुयी थी। उस समय हरियाना भी अलग राज्य नहीं था। पंजाब में पानी भरपूर मात्रा में उपलब्ध था। पीडीएस और फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया ने अनाजों के भंडारण के लिए यही पर अधिकांश गोदाम बना दिए। अनाजों का सारा प्रक्योरमेंट पंजाब से होने लगा।
हालिया २०१८-१९ के डाटा को देखें तो पंजाब ने १२.८ मिलियन टन चावल पैदा किया। इसमें से ११.४ मिलियन टन चावल एफसीआइ ने खरीद लिया। अकेले पंजाब से ९० प्रतिशत चावल खरीदा जा रहा है। हरियाना ने ४.५ मिलियन टन चावल पैदा किया और केंद्र सरकार ने उसका ८५ प्रतिशत खरीद लिया। हमारे अनाज का प्रोक्योरमेंट का ८० से ८५ प्रतिशत दो राज्यों से होता है।
उस समय दूसरे राज्यों से प्रोक्योरमेंट में कुछ मुश्किलात थे मगर बाद में तो स्थिति सुधर गयी। अन्य राज्यों में भी खेती बारी अच्छी होने लगी है। वहां से भी प्रोक्योरमेंट किया जा सकता है।
मोदी से पहले की सरकारें किसानों की दुर्दशा पर ध्यान ही नहीं दे सकी
मोदी से पहले की सरकारें बोटबैंक की राजनीति में इस तरह फंसी रही कि वह किसानों की दुर्दशा पर ध्यान ही नहीं दे सकी। देश के अन्य भागों के किसानों ने यह मांग भी नहीं की कि हमसे भी अनाज खरीदी जाय। उसने इसका विरोध भी कभी नहीं किया कि सारा अनाज पंजाब और हरियाना से ही क्यों खरीदी जा रही है? इसलिए यही ट्रेंड बन गया। पंजाब की मंडियों से बहुत लेन देन होते हैं। इसमें बिचौलियों की खूब कमाई होती है। इससे पोलिटिसियन भी जुड़े हुए हैं । उनकी भी खूब कमाई होती है। मगर किसान गरीब का गरीब रह जाता है।
किसानों की हालत कैसे सुधरे इस पर पहली बार अटल बिहारी बाजपेयी ने चिंता प्रकट की। उन्होंने वर्ष २००४ में श्री स्वामीनाथ की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। आयोग को जिम्मा दिया गया कि किसानो की हालत सुधार के लिए उपाय तलाशे जांय। स्वामीनाथन ने २००६ में अपना रिपोर्ट सरकार को सौंप दिया। तब मनमोहन सिंह देश के प्रधान मंत्री थे। उन्होंने इस विषय पर सेमिनारों में अच्छा भाषण दिया मगर उन सुझावों पर कोई अमल नहीं किया जो स्वामीनाथन कमीटी ने दिए थे।
मोदी सरकार ने उन सिफारिसों को लागू किया
एक बार प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने कहा था कि किसान की दशा को सुधारना कोई बड़ी समस्या नहीं है मगर सरकारें यह इसलिए नहीं करना चाहती है कि सरकारों को इसमें फायदा है कि किसान गरीब रहे। नहीं तो उसकी जी हूजूरी खत्म हो जाएगी। मोदी सरकार लाल बहादुर शास्त्री सरकार के बाद दूसरी सरकार है जिसने किसानों की सुध ली।
मोदी सरकार ने उन सिफारिसों को लागू किया और उनकी अनुसंसा के हिसाब से कानून बनाया। नया कानून ने किसानो को यह छूट दे दी कि आप की जहां मर्जी हो बेचें। वह सीधे सीधे कंपनियों को बेच सकता है। प्राइवेट खरीदारों को बेच सकता है। वह अब मंडियों का मोहताज नहीं रहा।
अब पंजाब से प्रोक्यारमेंट कम हो जाएगा। मंडियों से जुरे बिचोलिए का और राजनीतिज्ञों का भारी नुकसान हो सकता है। इसीलिए वे तिलमिलाए हुए हैं। इसी लिए यह प्रोटेस्ट हो रहा है।
स्वामीनाथन की सिफारिशे यदि पूरी
तरह लागू हो जाएं तो हर किसान पैसे वाला होगा
जब भी खेती, किसान का जिक्र आता है, किसान की आमदनी की बात होती है, देश में अनाज के बंपर उत्पादन की बात होती है, हरित क्रांति की बात चलती है एक शख्स का नाम जरुर आता है। वो हैं प्रो. एमएस स्वामीनाथन। प्रो. स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक कहा जाता है, उन्होंने किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए जो सुझाव दिए थे, अगर वो पूरी तरह लागू हो जाएं तो किसानों की दशा बदल सकती है। बेशक मोदी सरकार ने उनमें से सभी सिफारिशों को लागू नहीं किया है। मगर उम्मीद है कि भविष्य में सभी की सभी सिफाशों को लागू कर दिया जाय।
प्रो. स्वामीनाथन कौन हैं ?
आज प्रो. स्वामीनाथन का जन्म 7 अगस्त 1925, कुम्भकोणम, तमिलनाडु में हुआ। एमएस स्वामीनाथन पौधों के जेनेटिक वैज्ञानिक हैं। स्वामीनाथन भारत की 'हरित क्रांति' में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए विख्यात हैं। उन्होंने 1966 में मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित करके उच्च उत्पादकता वाले गेहूं के संकर बीज विकसित किए थे। 'हरित क्रांति' कार्यक्रम के तहत ज़्यादा उपज देने वाले गेहूं और चावल के बीज ग़रीब किसानों के खेतों में लगाए गए थे।
हरित क्रांति ने भारत को आत्मनिर्भर
बना दिया था
इस क्रांति ने भारत को दुनिया में खाद्यान्न की सर्वाधिक कमी वाले देश के कलंक से
उबारकर 25 वर्ष से कम समय में आत्मनिर्भर बना दिया था। भारत के कृषि पुनर्जागरण ने स्वामीनाथन को 'कृषि क्रांति आंदोलन' के वैज्ञानिक नेता के
रूप में ख्याति दिलाई। उनके द्वारा सदाबाहर क्रांति की ओर उन्मुख
अवलंबनीय कृषि की वकालत ने उन्हें अवलंबनीय खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में विश्व
नेता का दर्जा दिलाया। एमएस स्वामीनाथन को 'विज्ञान एवं
अभियांत्रिकी' के क्षेत्र
में 'भारत सरकार' द्वारा सन 1967 में 'पद्म श्री', 1972 में 'पद्म भूषण' और 1989 में 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया था।
क्यों बना था स्वामीनाथन आयोग
अन्न की आपूर्ति को भरोसेमंद बनाने और किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने, इन दो मकसदों को लेकर 2004 में केंद्र सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स का गठन किया। इसे आम लोग स्वामीनाथन आयोग कहते हैं। इस आयोग ने अपनी पांच रिपोर्टें सौंपी। अंतिम व पांचवीं रिपोर्ट 4 अक्तूबर, 2006 में सौंपी गयी लेकिन इस रिपोर्ट में जो सिफारिशें हैं उन्हें तब तक लागू नहीं किया जा सका है, जबतक नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं आयी।
क्या हैं आयोग की सिफारिशें
इस रिपोर्ट में भूमि सुधारों की गति को
बढ़ाने पर खास जोर दिया गया है।
सरप्लस व बेकार जमीन को भूमिहीनों में
बांटना, आदिवासी क्षेत्रों में पशु चराने के हक यकीनी
बनाना व राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाह सेवा सुधारों के विशेष अंग हैं।
किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए अयोग की सिफारिशें
किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए
अयोग की सिफारिशों में किसान आत्महत्या
की समस्या के समाधान, राज्य स्तरीय
किसान कमीशन बनाने, सेहत सुविधाएं बढ़ाने
व वित्त-बीमा की स्थिति पुख्ता
बनाने पर भी विशेष जोर दिया गया है।
एमएसपी औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा
रखने की सिफारिश भी की गई है ताकि छोटे
किसान भी मुकाबले में आएं, यही ध्येय खास है। किसानों की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछेक
नकदी फसलों तक सीमित न रहें, इस लक्ष्य से ग्रामीण ज्ञान केंद्र व मार्केट दखल स्कीम भी लांच करने की सिफारिश रिपोर्ट में है।
सिंचाई के लिए सभी को पानी की सही मात्रा मिले
सिंचाई के लिए सभी को पानी की सही
मात्रा मिले, इसके लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग व वाटर शेड परियोजनाओं को
बढ़ावा देने की बात रिपोर्ट में वर्णित है। इस लक्ष्य से पंचवर्षीय योजनाओं में
ज्यादा धन आवंटन की सिफारिश की गई है।
फसली बीमा के लिए रिपोर्ट में बैंकिंग
व आसान वित्तीय सुविधाओं को आम किसान तक पहुंचाने पर विशेष ध्यान दिया गया
है। सस्ती दरों पर क्रॉप लोन मिले यानि ब्याज़ दर सीधे 4 प्रतिशत कम कर दी
जाए। कर्ज उगाही में नरमी यानि जब तक किसान कर्ज़ चुकाने की स्थिति में
न आ जाए तब तक उससे कर्ज़ न बसूला जाए। उन्हें प्राकृतिक आपदाओं में
बचाने के लिए कृषि राहत फंड बनाया जाए।
खेती के लिए ढांचागत विकास
भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही
खेती के लिए ढांचागत विकास संबंधी भी रिपोर्ट
में चर्चा है। मिट्टी की जांच व संरक्षण भी एजेंडे में है। इसके लिए मिट्टी के पोषण से जुड़ी कमियों को
सुधारा जाए व मिट्टी की टेस्टिंग वाली
लैबों का बड़ा नेटवर्क तैयार करना होगा और सड़क के ज़रिए जुड़ने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने पर जोर
दिया जाए।
खाद्य सुरक्षा के लिए प्रति व्यक्ति भोजन उपलब्धता बढ़े, इस मकसद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आमूल सुधारों पर बल दिया गया है।
कम्युनिटी फूड व वाटर बैंक
कम्युनिटी फूड व वाटर बैंक बनाने व राष्ट्रीय भोजन गारंटी कानून की संस्तुति भी रिपोर्ट में है। इसके साथ ही वैश्विक सार्वजनिक वितरण प्रणाली बनाई जाए जिसके लिए जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 1% हिस्से की जरूरत होगी। महिला स्वयंसेवी ग्रुप्स की मदद से 'सामुदायिक खाना और पानी बैंक' स्थापित करने होंगे, जिनसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को खाना मिल सके। कुपोषण को दूर करने के लिए इसके अंतर्गत प्रयास किए जाएं।
जय हो नरेंद्र मोदी की जिसने इस दिशा में कदम तो उठाया। आशा है भविष्य में स्वामीनाथन के आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू किया जाएगा।


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