हिंदी
भाषा का बढ़ता जा रहा है महत्व

हिंदी
हमारी मातृभाषा है। इसका उद्भव संस्कृत से हुआ है। इसलिए यह वैज्ञानिक भाषा है। मगर
अंग्रेजी भारत में ज्यादा सम्माननीय भाषा मानी जाती है। बावजूद इसके कि अंग्रेजी काफी अवैज्ञानिक
भाषा है। हमारे समाज की भाषा हिंदी मगर राज की भाषा अंग्रेजी है। समाज की भाषा
हिंदी मगर सरकार की भाषा अंग्रेजी है। समाज की भाषा हिंदी मगर विज्ञान, तकनीकी, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सभी विषयों की शिक्षा का माध्यम
अंग्रेजी भाषा है । समाज की भाषा हिंदी मगर स्कूल कालेजों की भाषा अंग्रेजी है । समाज की भाषा हिंदी मगर
न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी है । समाज
की भाषा हिंदी मगर संसद की भाषा अंग्रेजी है । यह एक षडयंत्र है जो १८५३ से चला आ
रहा है।
हम सब
अव्वल तो लार्ड थौमस बैबिंगटन मैकेले के षडयंत्र के शिकार हुए हैं। और बाद में पंडित
नेहरू के षडयंत्र के शिकार हुए। इस मैकेले सिसटम ऑफ एडुकेशन ने हमरी शिक्षा की बाट
लगाकर रख दी। हमारी उर्जा का अधिकांश अंग्रेजी भाषा सीखने में नष्ट हो जाती है।
हमें अपने विषय का बहुत कम ज्ञान हो पाता है। हमारी डिग्रियों कागज के टुकड़े हैं
जिसे हम भले ही ड्राइंग रूम में फ्रेम में सजाकर रखते हैं, मगर इनका ज्ञान से कोई लेना देना
नहीं है।
थौमस
बैबिंगटन मैकेले १८३४ में भारत आया। वह
कुछ साल यहां रहा। लार्ड मैकेले ने भारत में रहकर जो पत्र अपने पिता को लिखा था
उसमें उसने स्विकार किया था कि भारत की शिक्षा पद्धति उत्तम कोटि की है । हम इसपर
लम्बे समय तक राज नहीं कर सकते । अत: हमे इस इडुकेशन सिसटम को नष्ट करना पड़ेगा।
उसका एक ही तरीका है कि उनपर अंग्रेजी थोप दिया जाय।
और जब वह वापस
इंगलैंड गया तो वहां १८४० में ब्रिटिश पारलियामेंट में उसने एक बिल पेश किया कि भारत में अंग्रेजी
भाषा में शिक्षा प्रारम्भ की जाय। यह १८५३ में पास हुआ । तब ब्रिटिश पारलियामेंट में उसने एक भाषण दिया था । उसने कहा था कि भारत की हिंदी भारत की रीढ़ की हड्डी है। इस रीढ़ की हड्डी
को तोड़ दो। भारत हमेशा के लिए गिर पड़ेगा। तबसे भारत की शिक्षा का माध्यम
अंग्रेजी है। आज २०१९ में भी वहीं चल रहा है।
अंग्रेजों
ने हमारे साथ षडयंत्र किया। उसके जाने के बाद हमारे अपनो ने ही, जो अंग्रेजों के भगत थे, उन्होंने हमे धोखा दिया। लेकिन हमने भी अपने आप को धोखा दिया।
उन्होंने जो कुछ कह दिया, उसको
हमने कभी जांचा नहीं, परखा नहीं, देखा नहीं कि यह सच
कह रहे हैं य झूठ कह रहे हैं । इन्होंने कह दिया कि हिंदी में विज्ञान नहीं पढाया जा सकता, हमने
मान लिया। उन्होंने कह दिया हिंदी शब्दकोष में शब्द बहुत कम है, हमने मान लिया। उन्होंने कह दिया कि
हिंदी तो मूर्खों की भाषा है,
गवारों की भाषा है, हमने
मान लिया।
ये जो हम किसी के
कहने पर मानते चले गये। उसकी जांच नहीं की। इससे बड़ी मूर्खता कुछ नहीं हो सकती है। हम भारतीयों के लिए
ये डूब मरने के बराबर है। गत ७० सालों में हम ऐसे ही डूब गये। हिंदी का सम्मान, हिंदी का गौरव, हिंदी
का महत्व, हमसे चला गया। सरकार ने तो पहले से ही इसे छोड़ रक्खा
था। इसलिए कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा हो सका। कभी आर्यसमाजियों की बदौलत हुआ था
बड़ा आंदोलन। अपने देश में लोहिया जी के जाने के बाद तो सन्नाटे का आलम है। अगर
वे आंदोलन सफल हो गये होते तो हमे यह दिन
नहीं देखना पड़ता।
हमने
हिंदी को गिरा दिया। अपने रोजमर्रा के जीवन में जब हम उसे सम्मान नहीं देंगे, तो दूसरों से आप कैसे अपेक्षा करेंगे कि वे उसे सम्मान देंगे। आप इसकी बेइज्जती करें और
अपेक्षा करें कि सरकार इसे सम्मान देगी, ऐसा सम्भव नहीं है। आप पहले इसकी इज्जत इसका सम्मान शुरू करें।
किसी भाषा का सबसे बड़ा सम्मान यह है कि आप बार बार और ज्यादा से ज्यादा उसका
प्रयोग करते हैं । कला, विज्ञान, वानिज्य, न्याय, सभी तरह की
शिक्षा हिंदी में अनिवर्य करें। रोजमर्रा के
जीवन से अपने शोध प्रवंधों तक जितना ज्यादा आप इसका प्रयोग करेंगे, उतना ही इसका सम्मान बढेगा। अगर आपमें इसके प्रति सम्मान आया, आपने आत्म गौरव महसूस किया, तो बाकी बातें तो आसान
है। सरकार भी कर देगी। अब पहले जैसी बात भी नहीं है। देश में आज वास्तविक भारतीय
सरकार कायम हो चुकी है। वो भ्रष्ट कांग्रेसियों का जमाना अब जा चुका है। राष्ट्रद्रोहियों, फासिस्टों, कौम्युनिस्टों,
स्यूडो सेकुलरों का दायरा सिमटता जा रहा है। राष्ट्रवादियों का पुनर्जागरण हो
रहा है। वैसे में हिंदी को उसका दर्जा मिलना आसान होता जा रहा है। वैसे भी गत २५
सालों में हिंदी पूरव से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, और भारत के बाहर यूरोप और अमेरिका आदि कई जगह में फैल रही है । हिंदी का
उपयोग बढ़ रहा है, भारत में भी और भरत के बाहर भी।
संयुक्त राष्ट्र में कुछ भाषाओं जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, अरैबिक, चीनी, स्पैनिश, को विशेष दर्जा मिल हुआ है। अब संयुक्त
राष्ट्र गंभीरता से सोच रहा है कि हिंदी को भी वही दर्जा मिले। संयुक्त राष्ट्र सैद्धांतिक रूप से मान
चुका है कि हिंदी को भी वही दर्जा मिलना
चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की स्थायी
समिति ने भारत सरकार को एक प्रस्ताव दिया था कि आप हमे ७० करोड़ डालर प्रति वर्ष
दें हम हिंदी को भी वही दर्जा दे देंगे। क्योंकि जब हम हिंदी को यह दर्जा देंगे
तो संयुक्त राष्ट्र में जो भी व्याख्यान और चर्चाएं होती हैं, उनका हिंदी भाषांतर हमे सबको सुनाना पड़ेगा। इसमें ७० करोड़ डालर का सलाना
खर्च है। अर्थात ५०० करोड़ रूपया। पिछली
कांग्रेस सरकार के जमाने की यह बात है। सरकार ने मना कर दिया था। उसने कहा कि यह
फालतू खर्चा है। इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है। ये अधिकारीगण इतना अपने उूपर
खर्च करें वो फालतू नहीं है और हिंदी के उूपर इतना खर्च हो वो फालतू है। भारत जैसे
देश में जहां १६ लाख करोड़ का बजट हो वहां ५०० करोड़ रूपया कोई बड़ी रकम नहीं है।
और एक बार हिंदी संयुक्त राष्ट्र में स्थापित हो गया तो सारी दुनियां में हिंदी
की इज्जत बढेगी। हम तो तब किसी का सम्मान करते हैं जब वह विलायत से आ जाता है।
योग जब योगा होकर विदेश से लौट कर आया तब हमने उसका महत्व समझा। इसी तरह जब हिंदी
को विदेशों में सम्मान मिलेगा तो हम उसका महत्व समझेंगे।
हिंदी की एक और ताकत है संस्कृत से जुड़ाव। संस्कृत एकमात्र भाषा है जिसे कम्प्यूटर ने सबसे वैज्ञानिक और सर्वाधिक कमप्यूटर फ्रेंडली माना।
दुनियां में कई ऐसी टेलीविजन कम्पनियां हैं जिन्होंने अपना हिंदी चैनेल चला रखा
है। चीन, रूस, जर्मनी, में हिंदी
प्रसारण होते हैं। बीबीसी दो घंटे का हिंदी कारीक्रम चलाता है। यह सब इसलिए होरहा
है कि दुनियां में १०० करोड़ से अधिक हिंदी भाषी हैं। दुनिया भर के देशों में
हिंदी के प्रति नजरिया बदलता जा रहा है। हिंदी बोलने वालों का बाजार भी बढ रहा है
उनकी क्रय शक्ति भी बढ़ रही है। तो दुनियां की कम्पनियों के लिए बड़ी सम्भावना
है हिंदी में। ब्रिटेन, अमेरिका आदि की बड़ी बड़ी कम्प्ानियों
ने अपने विज्ञापन हिंदी में शुरू कर दिए हैं। हिंदी की लोकप्रियता बढती जा रही है।
हिंदी का भविष्य उज्वल है।

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3 टिप्पणियाँ
Very good article.We all indian should respect Hindi as a primary language.
जवाब देंहटाएंBahut hi acchi lekh hai,sukriya
जवाब देंहटाएंexcellent information
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